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Class 9 – History Chapter 1: The French Revolution

📘 Chapter 1: The French Revolution – Summary 🔰 Introduction: The French Revolution began in 1789 and is one of the most significant events in world history. It marked the end of monarchy in France and led to the rise of democracy and modern political ideas such as liberty, equality, and fraternity . 🏰 France Before the Revolution: Absolute Monarchy: King Louis XVI ruled France with complete power. He believed in the Divine Right of Kings. Social Structure (Three Estates): First Estate: Clergy – privileged and exempt from taxes. Second Estate: Nobility – also exempt from taxes and held top positions. Third Estate: Common people (peasants, workers, merchants) – paid all taxes and had no political rights. Economic Crisis: France was in heavy debt due to wars (especially helping the American Revolution). Poor harvests and rising food prices led to famine and anger among the poor. Tax burden was unfairly placed on the Third Estate. Ideas of Enlightenmen...

12th राजनीति विज्ञान 2.5 : कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियां और पुनर्स्थापना

 



1- नेहरू के बाद उत्तराधिकार की चुनौती

लंबी बीमारी के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू जी का 27 मई 1964 को निधन हो गया। इसके पश्चात तुरंत ही गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया और नेहरू जी के बाद प्रधानमंत्री किसे बनाया जाए, इसकी खोज प्रारंभ हो गई। इस समय कांग्रेस के अध्यक्ष के. कामराज थे। जो मद्रास प्रांत (तमिलनाडु) से आते थे। इन्होंने नेहरू जी के उत्तराधिकारी को खोजने के लिए प्रयास तेज कर दिया। प्रधानमंत्री की दौड़ में इस समय दो नाम सबसे आगे थे। प्रथम मोरारजी देसाई थे जो गुजरात क्षेत्र से आते थे तथा गुजरात महाराष्ट्र संयुक्त प्रान्त बॉम्बे के मुख्यमंत्री रह चुके थे तथा नेहरु के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री भी रह चुके थे। मोरारजी देसाई अपनी नेतृत्व क्षमता और प्रशासनिक क्षमता से लोगों को प्रभावित कर चुके थे, लेकिन इनका व्यवहार ऐसा था कि लोग इन्हें कम पसंद करते थे। दूसरे उम्मीदवार के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री जी थे, जो उत्तर प्रदेश से आते थे। इनकी पहचान एक इमानदार और सरल स्वभाव के नेता के तौर पर थी। यह एक मध्यम वर्गीय परिवार से आते थे। ऐसा लोग बताते हैं कि इनकी माता जी की दवा कराने के लिए भी पैसा नहीं था, जिसके कारण उनका देहांत हो गया था। जब शास्त्री जी नेहरू जी के मंत्रिमंडल में रेल मंत्री थे,तो एक रेल दुर्घटना के पश्चात उन्होंने अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए इस्तीफा दे दिया था। लेकिन बाद में पुनः उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। जब नेहरू जी अपने अंतिम समय में अस्वस्थ चल रहे थे, तो इस दौरान वे ज्यादातर लाल बहादुर शास्त्री पर ही निर्भर थे। इसलिए शास्त्रीजी की दावेदारी मजबूत मानी जा रही थी।

इस समय कुलदीप नैयर (1923-2018) पत्रकार हुआ करते थे। इन्होंने लाल बहादुर शास्त्री से मुलाकात कर यह जानने का प्रयास किया कि क्या आप प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में हैं? इसके जवाब में शास्त्रीजी ने जवाब दिया कि मैं प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में नहीं हूं। जयप्रकाश नारायण या इंदिरा जी को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है। इस जवाब के साथ जब कुलदीप नैयरजी मोरारजी देसाई जी के पास गए तो मोरारजी देसाई ने जयप्रकाश नारायण को दिग्भ्रमित व्यक्ति जबकि इंदिरा जी को अनुभवहीन छोकरी करार दिया। मोरारजी देसाई ने यहां तक कहा कि यदि कांग्रेस अध्यक्ष चाहते हैं कि प्रधानमंत्री का फैसला बिना मतदान के हो जाए तो हमें निर्विरोध प्रधानमंत्री घोषित करें। चूंकि के. कामराज और सिंडिकेट के अन्य नेता मोरारजी देसाई को किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं देखना चाहते थे इसलिए कामराज ने कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से तथा लगभग 200 सांसदों से व्यक्तिगत सलाह किया। इस सलाह-मशविरा के पश्चात के कामराज मोरारजी देसाई से मुलाकात किए तथा उन्हें यह समझाया कि सभी मुख्यमंत्री और सांसद शास्त्री जी को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में हैं, अतः आप भी इसमें सहयोग करें। अतः नही चाहते हुए भी मोरारजी देसाई को बैकफुट होना पड़ा। इस प्रकार बिना किसी बड़ी खींचातानी के कांग्रेस संसदीय दल ने शास्त्री जी को निर्विरोध अपना नेता चुन लिया और भारत के अगले प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी बने।

2- प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के समक्ष चुनौतियां

नेहरू जी अपने पीछे भारत के लिए कई चुनौतियां छोड़ गए थे।लोगों को लग रहा था कि भारत अब लोकतांत्रिक मूल्यों को आगे नही बढ़ा पायेगा।पाकिस्तान की ही भांति भारत में भी राजनीति में सेना का हस्तक्षेप बढ़ जाएगा।अधिकारी वर्ग को भी लगता था कि शास्त्री जी इन चुनौतियों का सामना नही कर पाएंगे।

शपथ ग्रहण के साथ ही चुनौतियां शास्त्री की आगवानी प्रारम्भ कर दी।उनके समक्ष पहली चुनौती थी, स्वतंत्र निर्णय लेने की। क्योकि शपथ ग्रहण के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कामराज जी ने यह कहा कि शास्त्री जी नेहरूजी की भांति एकछत्र शासन नही चलाएंगे बल्कि सामूहिक नेतृत्व से शासन चलाएंगे। इसका तात्पर्य यह था कि कामराज चाहते थे कि शास्त्री जी कैबिनेट और पार्टी नेतृत्व से सलाह-मशविरा करके ही फैसले लें।

इस चुनौती से निपटने के लिए शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) का गठन किया और इस कार्यालय में अपने विश्वासपात्र अनुभवी वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों की नियुक्ति की।अब शास्त्री जी इसी कार्यालय पर पूरी तरह निर्भर हो गए थे। पार्टी नेतृत्व और कैबिनेट से उनकी निर्भरता लगभग समाप्त हो गयी थी।

शास्त्री जी के सम्मुख दूसरी चुनौती मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी थी। मोरारजी देसाई शास्त्री जी पर नम्बर की पोजीशन देने के लिए दबाव बना रहे थे अतः उन्हें कैबिनेट से हटा कर शांत कर दिया गया।वही दूसरी ओर नेहरूजी की पुत्री इंदिरा जी को कैबिनेट में जगह देने के लिए दबाव बढ़ रहा था।अतः शास्त्री जी ने इंदिरा जी को कैबिनेट में तो जगह दे दिया लेकिन सूचना प्रसारण मंत्रालय जैसा कम महत्वपूर्ण विभाग दिया,जिससे इंदिरा जी शायद संतुष्ट नहीं थी इसलिए उन्होंने शास्त्री जी के सम्मुख एक नई चुनौती पेश कर दी।यह नई चुनौती प्रधानमंत्री नेहरूजी का आवास त्रिमूर्ति भवन था। चूंकि त्रिमूर्ति भवन राजनीतिक रसूक का सिंबल माना जाता था, इसलिए इंदिरा जी चाहती थी कि शास्त्रीजी यहाँ शिफ्ट न हों।इसके लिए उन्होंने मांग की कि त्रिमूर्ति भवन को संग्रहालय में तब्दील कर दिया जाए और तर्क यह दिया गया कि त्रिमूर्ति भवन काफी बड़ा है।चूंकि नेहरू जी एक बड़े नेता थे,उनसे मिलने वाले लोग बहुत आया करते थे अतः उनके कद के हिसाब से ये सही था। लेकिन आने वाले प्रधानमंत्री उस कद के नही होंगे अतः इसे प्रधानमंत्री आवास बनाना उचित नही।इस संदर्भ में लगातार दबाव से तंग आकर शास्त्री जी ने झल्लाहट में कहा कि अब मैं त्रिमूर्ति भवन की ओर देखूंगा भी नही।

शास्त्री जी के सम्मुख तीसरी चुनौती थी खाद्यन्न संकट से निपटना।इसके लिए उन्होंने किचन गार्डेनिंग का कॉन्सेप्ट दिया। इसके अनुसार कोई भी जमीन का भाग खाली नही छूटना चाहिए, यहां तक कि अपने घर के अगल बगल खाली जमीन में भी सब्जी फल उगाया जाए। शास्त्रीजी ने प्रधानमंत्री आवास में भी खाली जमीन में स्वयं हल चलाकर फसल तैयार की।देशवासियों को सप्ताह में एक दिन का उपवास रखने का आह्वान किया। देश के किसानों को अधिक से अधिक अनाज उगाने के लिए प्रेरित करने के लिए जय जवान,जय किसान का नारा दिया। उन्होंने यह नारा प्रयागराज के उरुवा गांव में एक जनसभा के दौरान दिया। इस नारा में वहाँ की जनता ने उनका साथ इस प्रकार दिया था कि नारा की आवाज वहाँ से 35 किमी दूर इलाहाबाद तक सुनी गई थी। उनका यह नारा आज भी बच्चों बच्चों के जुबान पर है।

शास्त्रीजी के सम्मुख जो चौथी चुनौती थी वह पाकिस्तान की तरफ से थी।पाकिस्तान का सोचना था कि शास्त्री जी कमजोर प्रधानमंत्री हैं। वो कोई कठोर और बड़ा निर्णय नही ले पाएंगे और अगर निर्णय ले भी लिए तो अभी भारत युद्ध की स्थिति में नही है।1962 के युद्ध में चीन की पराजय से अभी भारतीय सेना उबर ही नही पाई है, ऐसे में एक और युद्ध भारत नही झेल पायेगा। यही उचित समय है कश्मीर पर कब्जा जमाने के लिए, पाकिस्तान की जीत निश्चित है। अतः कच्छ के रन के विवाद को तूल देकर पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया।हिमाचल प्रदेश के छम्ब में पाकिस्तानी आक्रमण इतना तेज था कि भारतीय सेना को मौका ही नही मिला और पाकिस्तान ने हमारी लगभग 30वर्ग मील जमीन पर कब्जा कर लिया। पाकिस्तान की नीति थी कि कश्मीर को शेष भारत से अलग कर दिया जाए।अतः शास्त्रीजी ने भी कठोर निर्णय लेते हुए पंजाब की सीमा से भारतीय थल सेना और वायु सेना को पाकिस्तान में प्रवेश करने के लिए कहा।शास्त्रीजी के इस निर्णय से पाकिस्तानी राष्ट्रपति अय्यूब खान ही नही भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी भी हतप्रभ थे। शास्त्रीजी की इस नीति से पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी और लाहौर तक हमारी सेना का कब्जा हो गया। अंततः यूएनओ के दबाव के कारण पाकिस्तान को युद्ध विराम की घोषणा करनी पड़ी।अतः भारत ने भी युद्ध विराम की घोषणा कर दी।

युध्द विराम के पश्चात पूर्व सोवियत संघ की मध्यस्थता से दोनों देशों के बीच ताशकन्द (वर्तमान में उज्बेकिस्तान की राजधानी) में जनवरी 1966 में समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार-

1- दोनों देशों की सेनाएं 5 अगस्त 1965 की स्थिति में वापस जाएं।अर्थात भारतीय सेना ने पाकिस्तान का जो भाग अपने कब्जे में ले लिया था, उसे वापस करना था।

2- दोनों देश एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

3- दोनों देश एक-दूसरे के विरुद्ध प्रचार नहीं करेंगे।

4- दोनों देश आपसी संबंधों में मधुरता लाने का प्रयास करें।विवादों को बातचीत से हल करने की कोशिश करें।

5- दोनों देश पुनः राजनयिक संबंधों की बहाली करें।

समझौते के बाद शाम को भोज पार्टी का आयोजन था।इस पार्टी में शामिल होने के पश्चात शास्त्रीजी अपने शयन कक्ष में गये।सोने से पहले उन्होंने अपने घर पर फोन लगाकर अपनी पत्नी से बात किये, बच्चों का हाल पूंछा। बातचीत के दौरान उनकी बातों में तनाव स्पष्ट झलक रहा था।इसके बाद रात्रि में किसी समय उनकी हृदय गति रुकने से निधन हो गया। इस प्रकार केवल 20 महीने के छोटे कार्यकाल में भी उन्होंने पूरे विश्व के सम्मुख अपनी एक अमिट छाप छोड़ गये जबकि कांग्रेस के सम्मुख एक बार पुनः उत्तराधिकारी को खोजने के लिए एक चुनौती छोड़ गए।

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शास्त्रीजी के बाद पुनः उत्तराधिकार की चुनौती

11 जनवरी 1966 की सुबह जैसे ही ऑल इंडिया रेडियो पर शास्त्रीजी के निधन के समाचार प्रसारित हुआ वैसे ही इंदिराजी ने सक्रियता दिखाते हुए मध्यप्रदेश के तात्कालिक मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा को दिल्ली बुला लिया। चूँकि डी पी मिश्रा इंदिराजी विश्वासपात्र थे और उनमें इतनी क्षमता थी कि वे इंदिरा जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए माहौल तैयार कर सकते थे,इसलिए उनकी दिल्ली में उपस्थिति जरूरी थी। पिछले बार की ही भांति इस बार भी गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया था और के. कामराज के द्वारा प्रधानमंत्री की खोज प्रारंभ हो चुकी थी।पिछले बार की ही भांति इस बार भी मोरारजी देसाई अपनी दावेदारी ठोक रखे थे। इस बार उनको विश्वास था कि उनका ही नंबर है। लेकिन उनको इस बात का भी डर था कि कहीं के.कामराज भी प्रधानमंत्री न बनना चाहें। क्योकि सिंडिकेट के नेता कामराज पर प्रधानमंत्री बनने का दबाव बना रहे थे। इंदिराजी को भी इसी बात का डर था।इंदिरा जी ने कामराज के मन की बात जानने के लिए उनसे मुलाकात करके, उनसे यह कहा कि अगले चुनाव तक गुलजारी लाल नंदा प्रधानमंत्री बने रहना चाहते हैं और मुझसे समर्थन मांगा है, इस संदर्भ में आपकी क्या राय है? इसके जबाब में कामराज ने कहा देखते हैं (लगभग सभी सवालों का उनका एक ही उत्तर होता था)। कामराज के इस उत्तर से इंदिराजी उन्हें पढ़ नही पाई।अब सब कुछ डी पी मिश्रा पर निर्भर था कि वो इंदिराजी के लिए माहौल तैयार करें। अतः डी पी मिश्रा ने भोपाल में सभी मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। इस बैठक में आठ मुख्यमंत्री शामिल हुए। इस बैठक में डी पी मिश्रा ने इंदिरा जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सभी को समर्थन करने के लिए कहा।सभी मुख्यमंत्री इंदिरा जी के पक्ष में तैयार हो गए लेकिन उन्हें भी इस बात का डर था कि यदि कामराज जी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं तो उनसे इंदिरा जी की बात करेंगे तो बुरा मान जाएंगे। इसलिए निर्णय यह हुआ कि हम सब पहले कामराज जी को प्रधानमंत्री बनने के लिए कहेंगे और उनके इनकार के बाद इंदिरा जी का नाम रखेंगे।

ऐसा ही किया गया, सभी मुख्यमंत्री कामराज से मिलकर उन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए कहा। कामराज ने इस पर अपनी असमर्थता जताई। उनका कहना था कि, न मैं हिंदी जनता हूं और न ही इंग्लिश, फिर शासन कैसे चला पाऊंगा। अतः फिर इंदिरा जी का नाम रखा गया जिस पर कामराज जी सहमत हो गए। इसके बाद कामराजजी मोरारजी देसाई से मिले। उन्हें यह समाचार दिया कि सभी इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं। इस पर देसाई जी नाराज हो गए उनको लगा कि पिछली बार भी यही बोल कर हमें बैठा दिए थे और इस बार भी। अतः उन्होंने कहा कि ठीक है इसका फैसला संसद में हो जाये।अन्ततः गुप्त मतदान के माध्यम से फैसला हुआ कि भारत की अगली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी होंगी। इंदिराजी को कांग्रेस पार्टी के दो तिहाई से भी अधिक सांसदों ने मत दिया था। इसप्रकार से कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद भी शांतपूर्ण ढंग से सत्ता परिवर्तन हो गया,जिसे भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता के रूप में देखा गया।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष चुनौतियां

श्रीमती इंदिरा गांधी विश्व की दूसरी और भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी।प्रधानमंत्री बनते ही उनके सम्मुख भी चुनौतियों का दौर प्रारम्भ हो गया।उनके सम्मुख निम्नलिखित चुनौतियां थी-

1- स्वतंत्रता पूर्वक निर्णय लेने की चुनौती

2- खाद्यान्न संकट से निपटने की चुनौती

3- आर्थिक मंदी

4- पार्टी के अंदर और बाहर विरोध।

5- 1967 के चुनाव में पार्टी को जीत दिलाने की चुनौती

कामराज और सिंडिकेट के अन्य नेता मोरारजी देसाई की तुलना में कम अनुभव होने के बावजूद भी इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए इसलिए सहमत हुए थे कि उनका मानना था कि कमजोर प्रधानमंत्री होने की स्थिति में पार्टी अध्यक्ष और सिंडिकेट की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी और उन लोगों के ऊपर श्रीमती गांधी की निर्भरता अधिक रहेगी। लेकिन धीरे-धीरे श्रीमती गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष और सिंडिकेट को दरकिनार कर दिया और उन्होंने पार्टी के बाहर के विश्वासपात्र लोगों को अपना सलाहकार नियुक्त किया।

खाद्यान्न संकट के संदर्भ में कुछ लोगो का मानना था कि इस संकट के लिए जिम्मेदार कुछ हद तक फ़ूड जोनिंग सिस्टम भी है। इस समय तक एक स्टेट का खाद्यान्न दूसरे स्टेट में नही जाता था जिसका कुछ मुख्यमंत्रियों ने खुलकर विरोध किया इसमें केरल सबसे आगे था।अतः फ़ूड जोनिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। लेकिन केवल इतने से ही खाद्यान्न संकट हल होने वाला नही था।गेहूं को बाहर से आयात करने की भी जरूरत थी।अतः श्रीमती गांधी को अमेरिका से गेहूं आयात करना पड़ा। लेकिन अमेरिका इस सहायता के बदलते श्रीमती गांधी पर दबाव बना कर भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन करवाया।अभी तक अमेरिकी एक डॉलर के बराबर भारत के 4.75 रुपये थे, लेकिन अवमूल्यन के बाद एक डॉलर का मूल्य 7.50 रुपये हो गए। इस अवमूल्यन का लाभ हमें तब मिलता जब हम अपना निर्यात बढ़ाते। लेकिन इस ओर कोई ध्यान नही दिया गया।उल्टे आयात पर हमें पहले की तुलना में ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ती थी, जिससे हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भी काफी कम हो गया था। देश के अंदर मंहगाई चरम पर थी। बामपंथी पार्टियां खुलकर विरोध कर रही थी।उनका कहना था कि अमेरिकी षड्यंत्र के तहत भारत पर मुद्रा का अवमूल्यन थोपा गया है। अर्थात पार्टी के अंदर और बाहर यहाँ तक कि आम जनता श्रीमती गांधी की विरोधी हो गयी थी।हां केवल स्वतंत्र पार्टी ने इस कदम का स्वागत किया था।

अब ऐसी स्थिति में श्रीमती गांधी के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती थी वह यह थी कि अगले चुनाव में जनता का विश्वास कैसे जीता जाए।जन सभाओं में भी उनको विरोध झेलना पड़ता था, यहां तक कि भुवनेश्वर की सभा के दौरान किसी ने उनपर पत्थर फेक दिया था। यह पत्थर जोर से उनके नाम में लगा था और वो घायल हो गयी थी। लेकिन उनका चुनाव अभियान थमा नही था।लोग नेहरूजी की नीतियों से हटने का उनपर आरोप लगा रहे थे, तो उनका उत्तर था कि हम नेहरूजी की नकल करने के लिए नही इस पद पर आए हैं, जो हमको उचित लगता है वो निर्णय लेती हूं, कोई हमारे निर्णय को बदल नही सकता। देश को संकट से बाहर निकालने के लिए हमने सारे प्रयास कर लिए लेकिन कोई उपाय न मिलने पर हमने कड़वी गोलियों (अमेरिका की मदद और मुद्रा का अवमूल्यन) का सहारा लिया।

लोगों का गुस्सा चुनावी नतीजों में भी दिखा। केंद्र में तो पार्टी को बहुमत प्राप्त हो गया लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में 78 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। पिछले चुनाव में कांग्रेस को 361 सीटें मिली थी जबकि इस बार केवल 283 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। लेकिन विधानसभा के चुनावों में पराजय का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस को 8 राज्यों में बहुमत प्राप्त नही हुआ थ। ये राज्य थे- पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, प.बंगाल, उड़ीसा, मद्रास और केरल।इनमें से मद्रास प्रान्त में DMK को पूर्ण बहुमत मिला था। शेष राज्यों में गैर कांग्रेसी दलों ने मिली जुली सरकार बनाई थी। इस चुनाव में कांग्रेस के कुछ बड़े नेता जैसे कामराज, एस. के.पाटिल, अतुल्य घोष, के.बी.सहाय आदि चुनाव हार गए थे।इसी चुनाव के बाद से गठबंधन और दलबदल की राजनीति की शुरुआत होती है।

इस चुनाव में कांग्रेस की पराजय का कारण कांग्रेस का आपसी मनमुटाव, इंदिराजी की अपरिपक्वता और प्रो-अमेरिकी नीति व राममनोहर लोहियाजी की गैर-कांग्रेसवाद की नीति को माना जा सकता है।

गैर-कांग्रेसवाद

चौथे आम चुनाव परिणाम 1967 को राजनीतिक भूकंप की संज्ञा दी जाती है। क्योंकि इस चुनाव से कांग्रेस के एक दल के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया था।इसके पीछे कई कारण थे लेकिन राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की नीति की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। राममनोहर लोहिया ने प्रथम तीन आम चुनाव के परिणामों का विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसी भी चुनाव में कांग्रेस को डाले गए मतों का 50%या अधिक मत (45%, 47.8%, 44.7%) नहीं मिला है। लेकिन शेष मत विभिन्न विपक्षी पार्टियों में वितरित हो जाने के कारण ही कांग्रेस की जीत होती आ रही है।अतः यदि सभी विपक्षी पार्टियों को एकजुट कर लिया जाए और सभी पार्टियां मिलकर कांग्रेस के विरूद्ध चुनाव मैदान में उतरें तो, कांग्रेस को हराया जा सकता है। लोहियाजी के इन्ही विचारों को गैर-कांग्रेसवाद की संज्ञा दी जाती है। राममनोहर लोहिया ने महसूस किया कि इंदिराजी की अनुभवहीनता और कांग्रेस पार्टी के आंतरिक कलह का लाभ उठाने का यही सही अवसर है। अतः उन्होंने समान विचारधारा वाली पार्टियों को एकजुट होने का आह्वान किया तथा कांग्रेस के अलोकतांत्रिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए आम जनता को भी प्रेरित किया। और इन सब का परिणाम राजनीतिक भूकम्प के रूप में सामने आया।

चौथे आम चुनाव का जनादेश

चौथे आम चुनाव परिणामों से यह स्पष्ट था कि कांग्रेस को कही नुकसान हुआ था। कांगेस को  मुश्किल से लोकसभा में बहुमत तो मिला था लेकिन सीटों की संख्या और मत प्रतिशत दोनों में कमी आयी थी। पिछले चुनाव में 361 सीटें मिली थी जबकि इस बार केवल 283 अर्थात 78 सीटों का नुकसान हुआ था।मत प्रतिशत के मामलों में जहां पिछले चुनाव में 44.72% मत प्राप्त हुए थे वहीं इस बार मात्र 40.78%मतों से ही संतोष करना पड़ा था। विधानसभा के चुनावों में और भी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा था। गुजरात, राजस्थान और उड़ीसा में स्वतंत्र पार्टी से,उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश और दिल्ली में जनसंघ से, बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टी से,जबकि मद्रास में DMK(द्रविड़ मुनेत्र कषगम) से कांग्रेस को कड़ी टक्कर मिली थी। मद्रास में DMK की सरकार बनी थी जबकि शेष आठ राज्यों के गैर कांग्रेसी मिलीजुली सरकारें बनी थी।इस समय दिल्ली से हावड़ा तक की रेल यात्रा के दौरान कोई भी कांग्रेस शासित राज्य नही मिलता था।

इंदिरा कैबिनेट के आधे मंत्री चुनाव हार गए थे। कई दिग्गज नेता जैसे के.कामराज (तमिलनाडु), एस के पाटिल (महाराष्ट्र), अतुल्य घोष (प.बंगाल) और के बी सहाय (बिहार) चुनाव हार गए थे।

1969 का राष्ट्रपति चुनाव और कांग्रेस का विभाजन

डॉ जाकिर हुसैन के निधन के बाद राष्ट्रपति का पद रिक्त हो गया। अतः राष्ट्रपति के चुनाव की तैयारियां तेज हो गयी। तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी वी गिरि राष्ट्रपति के कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे थे।

इस समय तक कांग्रेस का आपसी कलह चरम पर था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने 10 सूत्री कार्यक्रम के माध्यम से समाजवादी नीतियों को आगे बढ़ा थी।इस कार्यक्रम में बैंको का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की समाप्ति,भूमि सुधार, ग्रामीणों को आवासीय भूखण्ड उपलब्ध कराना और खाद्यान्नों का सरकारी वितरण आदि मुख्य रूप से सम्मिलित थे। हलाकि इस कार्यक्रम को कांग्रेस पार्टी और सिंडिकेट के नेताओं की सहमति प्राप्त थी लेकिन फिर भी इंदिरा जी की मंशा पर लोगों को सन्देह था। मोरारजी देसाई नाराज होकर उनके मंत्रिमंडल से बाहर हो चुके थे।

ऐसे में कांग्रेस पार्टी से राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिए एक नाम पर सहमति बन पाना संभव नहीं था। चूँकि इस समय कांग्रेस पर सिंडिकेट की पकड़ मजबूत थी और कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा स्वयं सिंडिकेट से थे, अतः उन्होंने सिंडिकेट के ही नेता और तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी को कांग्रेस का प्रत्याशी घोषित किया। लेकिन इंदिरा जी की नीलम संजीव रेड्डी जी से अनबन थी,उन्हें राष्ट्रपति के रूप में नही देखना चाहती थी। इसलिए उन्होंने उपराष्ट्रपति वी वी गिरि को निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया। सभी सांसदों और विधायकों से अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने के लिए आग्रह किया। अतः निजलिंगप्पा के द्वारा जारी ह्विप की परवाह किए बिना बड़ी संख्या में कांग्रेसी सांसद और विधायक वी वी गिरि के पक्ष में वोट किया। दोनों प्रत्याशियों में इतनी कड़ी टक्कर हुई थी कि मतगणना के प्रथम चरण में कोई भी उम्मीदवार निर्धारित कोटा को प्राप्त नही कर सका था। अतः द्वितीय चरण की मतगणना के बाद ही हार-जीत का फैसला हो पाया था। इंदिरा जी के उम्मीदवार वी वी गिरी की जीत हुई थी।

इंदिरा जी के इस रवैये से कांग्रेस और सिंडिकेट का शीर्ष नेतृत्व नाराज हो गया और इंदिरा जी को पार्टी से निकाल दिया। इस प्रकार 1969 में कांग्रेस विभाजित हो गयी। पुरानी कांग्रेस अर्थात निजलिंगप्पा और सिंडिकेट के प्रभाव वाली कांग्रेस  कांग्रेस(संगठन) अर्थात कांग्रेस(ओ) कहलाई, जबकि इंदिराजी ने नेतृत्व में गठित नवीन कांग्रेस कांग्रेस(रिक्विजिनिस्ट) अर्थात कांगेस(आर) कहलाई। इंदिरा सरकार अल्पमत हो गयी थी, अतः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन लेना पड़ा था।

क्रमशः

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