भारत का शासन: संविधान की आत्मा और कार्यपालिका की धड़कन | संरचना, शक्तियाँ व चुनौतियाँ
भारतीय संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज़ नहीं है; यह स्वतंत्रता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की उस ऐतिहासिक यात्रा का जीवंत साक्ष्य है जिसने भारत को औपनिवेशिक दासता से निकालकर एक आधुनिक, बहुलतावादी राष्ट्र-राज्य के रूप में स्थापित किया। इसकी संरचना में कार्यपालिका वह केंद्रीय तत्व है जो राज्य की नीतियों को वास्तविकता में परिणत करती है। संविधान का भाग V, अध्याय I (अनुच्छेद 52 से 78) भारतीय संघ की कार्यपालिका की संरचना, अधिकारों और सीमाओं का विधिक आधार प्रदान करता है।
इस लेख में कार्यपालिका को न केवल एक प्रशासनिक इकाई के रूप में बल्कि संवैधानिक दर्शन के एक अनिवार्य घटक के रूप में समझने का प्रयास किया गया है। यह विवेचना उसके ऐतिहासिक उद्भव, संरचना, शक्तियों, सीमाओं, समकालीन चुनौतियों तथा भावी दिशा पर केंद्रित है।
1. कार्यपालिका का उद्भव: संवैधानिक रूपरेखा
भारत के स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात एक प्रभावी और उत्तरदायी शासन-व्यवस्था की स्थापना प्रमुख चुनौती थी। संविधान सभा ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के सिद्धांतों को अपनाया, किंतु उसे भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाला। इस प्रणाली में औपचारिक (नॉमिनल) प्रमुख और वास्तविक (रीयल) प्रमुख के बीच स्पष्ट भेद किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 52 से 78 संघीय कार्यपालिका की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं—राष्ट्रपति औपचारिक प्रमुख हैं, प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद वास्तविक नीति-निर्माता हैं, तथा उपराष्ट्रपति एवं महान्यायवादी जैसे पद कार्यपालिका की संस्थागत विविधता को दर्शाते हैं। यह ढाँचा सत्ता के केंद्रीकरण से बचने, उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने और संघीय संतुलन बनाए रखने हेतु निर्मित किया गया था।
1975-77 के आपातकाल के अनुभव ने यह स्पष्ट किया कि कार्यपालिका की शक्ति को नियंत्रित करने हेतु संवैधानिक सुरक्षा-उपाय अनिवार्य हैं। अतः, अनुच्छेद 74 में मंत्रिपरिषद की सलाह को बाध्यकारी बनाया गया और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की परंपरा को सुदृढ़ किया गया।
2. कार्यपालिका की संरचना और संवैधानिक भूमिकाएँ
(क) राष्ट्रपति:
राष्ट्रपति भारत के संवैधानिक प्रमुख हैं। वे संसद को आहूत करते हैं, विधेयकों को अनुमोदन प्रदान करते हैं, और उच्च संवैधानिक पदों पर नियुक्तियाँ करते हैं। यद्यपि औपचारिक रूप से अनेक शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास हैं, किंतु अनुच्छेद 74 के तहत वे मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य हैं। राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद तथा राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा होता है, जो संघीय चरित्र को रेखांकित करता है।
(ख) उपराष्ट्रपति:
वे राज्यसभा के पदेन सभापति हैं और राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उनका कार्यभार संभालते हैं। 1969 में राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन के निधन के बाद यह संवैधानिक व्यवस्था सक्रिय हुई थी।
(ग) प्रधानमंत्री एवं मंत्रिपरिषद:
प्रधानमंत्री वास्तविक कार्यपालिका के प्रमुख हैं। मंत्रिपरिषद नीतिगत एवं प्रशासनिक निर्णयों की उत्तरदायी संस्था है। लोकसभा में बहुमत की शर्त उन्हें लोकतांत्रिक वैधता प्रदान करती है। हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) की बढ़ती भूमिका कार्यपालिका के भीतर शक्ति-संकेन्द्रण की प्रवृत्ति को इंगित करती है।
(घ) महान्यायवादी (Attorney General):
यह केंद्र सरकार का प्रमुख विधिक सलाहकार होता है। 2023 में चुनावी बांड प्रकरण सहित विभिन्न मामलों में इसकी भूमिका सार्वजनिक विमर्श का विषय बनी।
(ङ) निर्णय-प्रक्रिया:
अनुच्छेद 78 के अनुसार प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति को सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों की सूचना देना आवश्यक है। किंतु प्रशासनिक पारदर्शिता और निर्णय-प्रक्रिया में जन-सक्रियता के प्रश्न अक्सर उठते रहते हैं।
3. कार्यपालिका की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व
कार्यपालिका राज्य संचालन की केंद्रबिंदु है। इसकी मुख्य शक्तियाँ निम्नलिखित हैं:
- कानूनों का क्रियान्वयन: संसद द्वारा पारित अधिनियमों को लागू करना।
- नीतिगत निर्माण: शिक्षा, स्वास्थ्य, डिजिटल इंडिया जैसी योजनाओं की रूपरेखा।
- विदेश नीति संचालन: अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत का प्रतिनिधित्व।
- आपातकालीन प्रावधान: राष्ट्रीय संकट में विशेषाधिकारों का प्रयोग।
- नियुक्ति शक्तियाँ: उच्च संवैधानिक पदों पर नियुक्ति।
इन शक्तियों के साथ उत्तरदायित्व की अवधारणा अनिवार्य रूप से जुड़ी है। मंत्रिपरिषद संसद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है। न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा का अधिकार कार्यपालिका की असीमित शक्ति पर अंकुश लगाता है।
4. कार्यपालिका की समकालीन चुनौतियाँ
(क) औपचारिक बनाम वास्तविक शक्ति-विभाजन:
राष्ट्रपति के व्यापक संवैधानिक अधिकारों और उनके व्यावहारिक प्रयोग के बीच अंतर राजनीतिक विवाद को जन्म देता है। दिल्ली के उपराज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच विवाद इसका समसामयिक उदाहरण है।
(ख) पारदर्शिता की कमी:
आरटीआई जैसे प्रावधानों के बावजूद नीतिगत निर्णयों की अपारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लगा रहता है।
(ग) शक्ति-संकेन्द्रण:
प्रधानमंत्री कार्यालय एवं कुछ प्रमुख मंत्रालयों में निर्णय-प्रक्रिया का केंद्रीकरण संघीय संतुलन और आंतरिक लोकतंत्र को चुनौती देता है।
(घ) अनुच्छेद 356 का प्रयोग:
राष्ट्रपति शासन की घोषणा कई बार राजनीतिक कारणों से की गई है। 1975 का आपातकाल तथा बाद की घटनाएँ इस प्रावधान के दुरुपयोग के साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।
(ङ) राजनीतिक अस्थिरता एवं गठबंधन युग:
राजनीतिक अस्थिरता कार्यपालिका की दीर्घकालीन नीति-निर्माण क्षमता को बाधित करती है।
5. कार्यपालिका पर नियंत्रण एवं संतुलन
भारतीय संविधान ने कार्यपालिका की शक्तियों पर बहुस्तरीय नियंत्रण सुनिश्चित किए हैं:
- संवैधानिक बाध्यताएँ: राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी होती है।
- संसदीय उत्तरदायित्व: प्रश्नकाल, स्थायी समितियाँ और विश्वास मत कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।
- न्यायिक समीक्षा: सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय कार्यपालिका के निर्णयों को असंवैधानिक पाए जाने पर निरस्त कर सकते हैं।
- संघीय ढाँचा: राज्यों के अधिकार एवं वित्तीय स्वायत्तता कार्यपालिका के केंद्रीकरण को सीमित करती है।
6. न्यायपालिका का हस्तक्षेप: प्रमुख निर्णय
- केसवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973): संविधान की मूल संरचना सिद्धांत प्रतिपादित।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर अंकुश।
- इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975): चुनावी ईमानदारी और कार्यपालिका की जवाबदेही।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): संवैधानिक संशोधनों की न्यायिक समीक्षा।
हाल के वर्षों में दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल विवाद जैसे मामलों में न्यायपालिका ने कार्यपालिका की सीमाएँ स्पष्ट की हैं।
7. भावी दिशा: कार्यपालिका के सुदृढ़ीकरण हेतु सुझाव
- सामूहिक निर्णय-प्रक्रिया को प्रोत्साहन: केवल PMO पर निर्भरता घटाना।
- राष्ट्रपति की शक्तियों का स्पष्ट संहिताकरण: असमंजस की स्थिति को कम करना।
- पारदर्शिता एवं ई-गवर्नेंस: निर्णय-प्रक्रिया को सार्वजनिक करना।
- संघीय सहयोग: केंद्र और राज्यों के बीच सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) को सुदृढ़ करना।
- नौकरशाही में सुधार: योग्यता-आधारित भर्ती और राजनीतिक दबाव में कमी।
8. निष्कर्ष: संविधान की आत्मा और कार्यपालिका की धड़कन
भारतीय संविधान का भाग V, अध्याय I कार्यपालिका को केवल प्रशासनिक मशीनरी के रूप में नहीं देखता, बल्कि उसे लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की संरचना में स्थित करता है। 2020-2025 के अनुभव—चाहे वह महामारी प्रबंधन हो, केंद्र-राज्य तनाव हो या प्रधानमंत्री कार्यालय की बढ़ती भूमिका—यह संकेत देते हैं कि कार्यपालिका की शक्ति को संवैधानिक संतुलन, न्यायिक समीक्षा और जन-जवाबदेही के दायरे में बनाए रखना लोकतंत्र की स्थिरता के लिए अपरिहार्य है।
भारतीय लोकतंत्र की स्थायित्व-शक्ति इसी में निहित है कि कार्यपालिका संविधान की आत्मा के अनुरूप कार्य करे। जब तक जनता सजग, मीडिया स्वतंत्र और न्यायपालिका सक्रिय रहेगी, तब तक कार्यपालिका संविधान के दायरे में रहकर राष्ट्र-निर्माण की धड़कन बनी रहेगी।
स्रोत (References)
- संविधान सभा की बहसें (1946-1950): नेशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया।
- भारत का संविधान (नवीनतम संस्करण): विधि और न्याय मंत्रालय, भारत सरकार।
- सिविल सोसाइटी रिपोर्ट्स (2023): प्रशासनिक पारदर्शिता पर विश्लेषण।
- केसवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल (1973): AIR 1973 SC 1461।
- इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975): AIR 1975 SC 2299।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): AIR 1980 SC 1789।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): AIR 1994 SC 1918।
- द हिंदू (2020-2025): COVID-19, केंद्र-राज्य संबंध एवं कार्यपालिका पर लेख।
- इंडियन एक्सप्रेस (2023): दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल विवाद।
- इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (2022): राष्ट्रपति शासन और संघीयता पर विश्लेषण।
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