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Class 9 – History Chapter 1: The French Revolution

📘 Chapter 1: The French Revolution – Summary 🔰 Introduction: The French Revolution began in 1789 and is one of the most significant events in world history. It marked the end of monarchy in France and led to the rise of democracy and modern political ideas such as liberty, equality, and fraternity . 🏰 France Before the Revolution: Absolute Monarchy: King Louis XVI ruled France with complete power. He believed in the Divine Right of Kings. Social Structure (Three Estates): First Estate: Clergy – privileged and exempt from taxes. Second Estate: Nobility – also exempt from taxes and held top positions. Third Estate: Common people (peasants, workers, merchants) – paid all taxes and had no political rights. Economic Crisis: France was in heavy debt due to wars (especially helping the American Revolution). Poor harvests and rising food prices led to famine and anger among the poor. Tax burden was unfairly placed on the Third Estate. Ideas of Enlightenmen...

12th राजनीति विज्ञान : समकालीन विश्व मे सुरक्षा



उपरोक्त पाठ में सुरक्षा (Security) की अवधारणा, उसकी परिभाषा, तथा पारंपरिक और गैर-पारंपरिक सुरक्षा चिंताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इस विश्लेषण में हम निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देंगे:

1. सुरक्षा की परिभाषा और उसकी व्यापकता

सुरक्षा का मूल अर्थ है—खतरे से मुक्ति। हालांकि, हर प्रकार के खतरे को सुरक्षा संकट नहीं कहा जा सकता। सुरक्षा उन खतरों से संबंधित होती है जो किसी देश या समाज के "मूल्यों" (Core Values) को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

यहाँ प्रश्न उठता है कि किन मूल्यों को प्राथमिकता दी जाए—सरकार द्वारा तय किए गए राष्ट्रीय मूल्य या आम नागरिकों के मूल्य?

सुरक्षा का दायरा बहुत व्यापक हो सकता है, लेकिन यदि इसे असीमित रूप से परिभाषित किया जाए तो हर छोटी-बड़ी घटना सुरक्षा संकट बन सकती है। इसलिए, सुरक्षा का संबंध उन खतरों से होता है जो मूल्यों को "अप्रत्यावर्तनीय" (Irreparable) नुकसान पहुँचा सकते हैं।

2. सुरक्षा की गतिशील अवधारणा

सुरक्षा एक स्थिर अवधारणा नहीं है। समय और परिस्थितियों के अनुसार समाजों की सुरक्षा को लेकर सोच बदलती रहती है।

सभी देशों और समाजों की सुरक्षा चिंताएँ समान नहीं होतीं।

ऐतिहासिक रूप से भी सुरक्षा की धारणा बदलती रही है।

3. पारंपरिक सुरक्षा (Traditional Security) और बाहरी खतरे

पारंपरिक सुरक्षा का मुख्यतः संबंध राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) से होता है, जिसमें बाहरी सैन्य खतरे प्रमुख होते हैं।

सैन्य खतरों से सुरक्षा: किसी देश की संप्रभुता (Sovereignty), स्वतंत्रता (Independence) और क्षेत्रीय अखंडता (Territorial Integrity) को बचाने के लिए सैन्य तैयारी आवश्यक होती है।

युद्ध और नागरिक सुरक्षा: युद्ध केवल सैनिकों को ही नहीं, बल्कि आम नागरिकों को भी प्रभावित करता है।

सुरक्षा नीतियाँ:

1. निवारण (Deterrence): युद्ध को रोकने के लिए आक्रामक देश को यह संकेत देना कि युद्ध की कीमत बहुत अधिक होगी।

2. रक्षा (Defence): हमले की स्थिति में अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना।

3. संतुलन (Balance of Power): पड़ोसी और शक्तिशाली देशों के साथ शक्ति संतुलन बनाए रखना।

4. गठबंधन (Alliance Building): अन्य देशों के साथ मिलकर सुरक्षा सुनिश्चित करना।

4. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और सुरक्षा

वैश्विक राजनीति में कोई केंद्रीय सत्ता नहीं होती, जो सभी देशों को नियंत्रित कर सके। इसलिए हर देश को अपनी सुरक्षा खुद सुनिश्चित करनी पड़ती है।

संयुक्त राष्ट्र (UN) जैसी संस्थाएँ मौजूद हैं, लेकिन उनकी शक्ति उनके सदस्य देशों की इच्छाओं पर निर्भर करती है।

निष्कर्ष

सुरक्षा केवल सैन्य मामलों तक सीमित नहीं है; यह एक व्यापक और बहु-आयामी अवधारणा है।

पारंपरिक सुरक्षा में मुख्य रूप से बाहरी सैन्य खतरों को प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन यह समझना आवश्यक है कि सुरक्षा की परिभाषा समय और संदर्भ के अनुसार बदलती रहती है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में सुरक्षा एक खुली बहस का विषय होना चाहिए, न कि ऐसा मुद्दा जिसे केवल सरकार के अधिकार क्षेत्र तक सीमित रखा जाए।

पारंपरिक सुरक्षा की आंतरिक अवधारणा का विश्लेषण

1. आंतरिक शांति और सुरक्षा का महत्व

पारंपरिक सुरक्षा आमतौर पर बाहरी खतरों (External Threats) पर केंद्रित होती है, लेकिन यह आंतरिक सुरक्षा (Internal Security) को भी शामिल करती है।

यदि किसी देश के भीतर हिंसा, अस्थिरता या विद्रोह की स्थिति बनी रहे, तो वह बाहरी खतरों का प्रभावी ढंग से मुकाबला नहीं कर सकता।

आंतरिक अस्थिरता राष्ट्रीय संप्रभुता (Sovereignty) और अखंडता (Integrity) को भी प्रभावित कर सकती है।

2. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आंतरिक सुरक्षा का महत्व घटने का कारण

द्वितीय विश्व युद्ध (1945) के बाद, अमेरिका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों के लिए आंतरिक सुरक्षा बड़ी चिंता का विषय नहीं थी, क्योंकि उनके अपने देशों में स्थिरता थी।

पश्चिमी यूरोप के शक्तिशाली देशों को भी आंतरिक विद्रोहों से बहुत अधिक खतरा नहीं था।

इस कारण, इन देशों ने अपने सुरक्षा प्रयासों को बाहरी खतरों, विशेष रूप से शीत युद्ध (Cold War) के सैन्य टकरावों पर केंद्रित किया।

3. औपनिवेशिक युद्ध और नई स्वतंत्र देशों की सुरक्षा चिंताएँ

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोपीय शक्तियों को अपने उपनिवेशों (Colonies) में स्वतंत्रता आंदोलनों से खतरा था।

फ्रांस (Vietnam) और ब्रिटेन (Kenya) ने अपने उपनिवेशों में स्वतंत्रता संघर्षों को दबाने के लिए सैन्य कार्रवाई की।

जब उपनिवेश स्वतंत्र हुए, तो उनकी सुरक्षा चुनौतियाँ यूरोपीय शक्तियों से भिन्न थीं।

4. शीत युद्ध और नव स्वतंत्र देशों की सुरक्षा

कई नव स्वतंत्र देशों ने शीत युद्ध (Cold War) के दौरान अमेरिका या सोवियत संघ के सैन्य गुटों में शामिल होकर अपने सुरक्षा हितों को सुरक्षित करने की कोशिश की।

लेकिन उन्हें दोहरी चुनौतियाँ थीं—

1. बाहरी सैन्य संघर्ष (External Conflicts): पड़ोसी देशों से युद्ध का खतरा।

2. आंतरिक संघर्ष (Internal Conflicts): अलगाववादी आंदोलनों (Separatist Movements) और गृहयुद्धों (Civil Wars) का खतरा।

1946 से 1991 के बीच, विश्व में आंतरिक संघर्षों (Civil Wars) की संख्या में 12 गुना वृद्धि हुई, जो बताती है कि आंतरिक सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण हो गई थी।

5. बाहरी और आंतरिक सुरक्षा खतरों का मिश्रण

कई बार, बाहरी और आंतरिक खतरे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।

पड़ोसी देश किसी देश के आंतरिक विद्रोह को बढ़ावा देकर अस्थिरता पैदा कर सकते हैं, जिससे दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता है।

निष्कर्ष

पारंपरिक सुरक्षा न केवल बाहरी सैन्य खतरों से संबंधित है, बल्कि आंतरिक अस्थिरता से भी जुड़ी हुई है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, पश्चिमी महाशक्तियों के लिए आंतरिक सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं था, लेकिन नव स्वतंत्र देशों के लिए यह एक प्रमुख चिंता बन गई।

आंतरिक संघर्षों और अलगाववादी आंदोलनों के कारण, 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गृहयुद्धों की संख्या में भारी वृद्धि हुई।

इस कारण, किसी भी देश की सुरक्षा नीति को आंतरिक और बाहरी दोनों तरह के खतरों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए।

पारंपरिक सुरक्षा और सहयोग का विश्लेषण

पारंपरिक सुरक्षा (Traditional Security) की अवधारणा मुख्य रूप से सैन्य बल के उपयोग या उसके खतरे पर केंद्रित है। लेकिन इसमें यह भी स्वीकार किया जाता है कि कुछ परिस्थितियों में युद्ध और हिंसा को सीमित करने के लिए सहयोग (Cooperation) आवश्यक है। यह सहयोग युद्ध के उद्देश्यों, उसके तरीकों और हथियारों के नियंत्रण से संबंधित होता है।

1. युद्ध में नैतिक सीमाएँ और संयम

पारंपरिक सुरक्षा दृष्टिकोण में यह मान्यता है कि युद्ध केवल "सही कारणों" (Just Causes) के लिए किया जाना चाहिए, जैसे आत्मरक्षा (Self-Defence) या नरसंहार (Genocide) को रोकना।

युद्ध के दौरान गैर-लड़ाकों (Non-Combatants), निहत्थे सैनिकों और आत्मसमर्पण करने वालों को नुकसान नहीं पहुँचाया जाना चाहिए।

सैन्य बल का उपयोग तभी किया जाना चाहिए जब सभी वैकल्पिक उपाय असफल हो जाएँ।

विश्लेषण:

इस दृष्टिकोण से पता चलता है कि पारंपरिक सुरक्षा केवल आक्रामकता पर आधारित नहीं है, बल्कि इसमें नैतिक और मानवीय विचार भी शामिल होते हैं। हालाँकि, इतिहास में कई बार इस सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है, जहाँ शक्तिशाली देशों ने अपनी सैन्य कार्रवाइयों को सही ठहराने के लिए "आत्मरक्षा" का तर्क दिया।

2. निरस्त्रीकरण (Disarmament)

निरस्त्रीकरण का अर्थ है कि सभी देश कुछ विशेष प्रकार के हथियारों को पूर्ण रूप से नष्ट कर दें या उनका उत्पादन बंद कर दें।

1972 में जैविक हथियार संधि (BWC) और 1992 में रासायनिक हथियार संधि (CWC) के तहत इन हथियारों के निर्माण और भंडारण पर रोक लगा दी गई।

155 से अधिक देशों ने BWC को और 181 देशों ने CWC को स्वीकार किया, जिससे यह वैश्विक स्तर पर प्रभावी बना।

विश्लेषण:

निरस्त्रीकरण एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन यह सीमित सफलता ही हासिल कर सका है। मुख्यतः, परमाणु हथियार संपन्न देश जैसे अमेरिका और सोवियत संघ (अब रूस) परमाणु हथियारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, जिससे व्यापक निरस्त्रीकरण संभव नहीं हो पाया।

3. शस्त्र नियंत्रण (Arms Control)

शस्त्र नियंत्रण का अर्थ है हथियारों की संख्या और विकास को सीमित करना, जिससे युद्ध की संभावना को कम किया जा सके।

1972 की एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि (ABM Treaty) के तहत अमेरिका और सोवियत संघ ने परमाणु मिसाइल सुरक्षा प्रणाली के निर्माण को सीमित किया।

अन्य महत्वपूर्ण संधियाँ:

SALT II (Strategic Arms Limitation Treaty II)

START (Strategic Arms Reduction Treaty)

परमाणु अप्रसार संधि (NPT - Nuclear Non-Proliferation Treaty, 1968) के तहत:

1967 से पहले परमाणु हथियार रखने वाले देशों को हथियार बनाए रखने की अनुमति दी गई।

नए देशों को परमाणु हथियार विकसित करने से रोक दिया गया।

विश्लेषण:

शस्त्र नियंत्रण ने कुछ हद तक सैन्य संघर्ष की संभावना को कम किया, लेकिन यह पूरी तरह सफल नहीं रहा।

NPT की आलोचना: इसे "पक्षपाती संधि" माना जाता है, क्योंकि यह कुछ देशों को परमाणु हथियार रखने की अनुमति देता है, जबकि अन्य देशों पर प्रतिबंध लगाता है।

ABM संधि को अमेरिका ने 2002 में छोड़ दिया, जिससे परमाणु संतुलन प्रभावित हुआ।

4. विश्वास-निर्माण उपाय (Confidence Building Measures - CBMs)

शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका और सोवियत संघ ने आपसी गलतफहमी को कम करने के लिए सूचना साझा करने के उपायों को अपनाया।

इसमें शामिल थे:

सैन्य योजनाओं और रणनीतियों की सीमित जानकारी साझा करना।

यह सुनिश्चित करना कि कोई भी देश अचानक हमला नहीं करेगा।

विश्लेषण:

यह उपाय पारंपरिक सुरक्षा का एक सकारात्मक पक्ष है। विश्वास-निर्माण से देशों के बीच युद्ध की संभावना कम होती है और सैन्य तनाव को कम किया जा सकता है।

हालाँकि, यह रणनीति सभी देशों के लिए समान रूप से प्रभावी नहीं होती, क्योंकि कुछ देश रणनीतिक लाभ पाने के लिए पारदर्शिता से बचते हैं।

5. निष्कर्ष

पारंपरिक सुरक्षा मुख्य रूप से सैन्य शक्ति पर आधारित है, लेकिन इसमें सहयोग के माध्यम से हिंसा को नियंत्रित करने की संभावनाएँ भी हैं।

निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण की संधियाँ हथियारों को सीमित करने में मदद कर सकती हैं, लेकिन वे महाशक्तियों की भू-राजनीतिक रणनीतियों से प्रभावित होती हैं।

NPT जैसी संधियों में असमानताएँ हैं, जिससे कुछ देशों को विशेषाधिकार मिलता है, जबकि अन्य देशों को परमाणु शक्ति बनने से रोका जाता है।

विश्वास-निर्माण उपाय (CBMs) सैन्य संघर्ष को कम कर सकते हैं, लेकिन सभी देश इस प्रक्रिया को अपनाने के लिए तैयार नहीं होते।

समग्र रूप से, पारंपरिक सुरक्षा का दृष्टिकोण बल (Force) और सहयोग (Cooperation) दोनों को शामिल करता है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता राजनीतिक इच्छाशक्ति और अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन पर निर्भर करती है।

गैर-पारंपरिक सुरक्षा अवधारणा का विश्लेषण

गैर-पारंपरिक सुरक्षा (Non-Traditional Security) की अवधारणा पारंपरिक सुरक्षा से आगे बढ़कर ऐसे खतरों और चुनौतियों को शामिल करती है, जो मानव अस्तित्व की परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। यह दृष्टिकोण केवल राज्यों की सुरक्षा तक सीमित न होकर व्यक्तियों, समुदायों और संपूर्ण मानवता की सुरक्षा को प्राथमिकता देता है।

गैर-पारंपरिक सुरक्षा को "मानव सुरक्षा" (Human Security) और "वैश्विक सुरक्षा" (Global Security) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें आतंकवाद, मानवाधिकार, वैश्विक गरीबी, प्रवासन, स्वास्थ्य महामारियाँ, और पर्यावरणीय चुनौतियाँ शामिल हैं।

1. गैर-पारंपरिक सुरक्षा की व्यापकता

पारंपरिक सुरक्षा केवल सैन्य खतरों पर केंद्रित होती है, जबकि गैर-पारंपरिक सुरक्षा अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाती है:

यह केवल राज्यों की सुरक्षा तक सीमित न रहकर व्यक्तिगत और वैश्विक सुरक्षा पर केंद्रित होती है।

कई बार सुरक्षित राज्य होने का अर्थ सुरक्षित नागरिक नहीं होता। इतिहास गवाह है कि कई बार सरकारें अपने ही नागरिकों के लिए खतरा बन जाती हैं।

विश्लेषण:

इस दृष्टिकोण से पता चलता है कि सुरक्षा की परिभाषा को केवल सैन्य बल से नहीं जोड़ा जा सकता। बल्कि, नागरिकों की आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य से जुड़ी सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

2. मानव सुरक्षा: संकीर्ण बनाम व्यापक दृष्टिकोण

(A) संकीर्ण दृष्टिकोण (Narrow Concept of Human Security)

इस दृष्टिकोण के समर्थक केवल हिंसा और युद्ध से सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं।

पूर्व UN महासचिव कोफी अन्नान के अनुसार, "मानव सुरक्षा का मतलब आंतरिक हिंसा से व्यक्तियों और समुदायों की रक्षा करना" है।

(B) व्यापक दृष्टिकोण (Broad Concept of Human Security)

इसमें भूख, बीमारी और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा भी शामिल है, क्योंकि ये कारक युद्ध, नरसंहार और आतंकवाद से अधिक लोगों की जान लेते हैं।

यह "डर से मुक्ति" (Freedom from Fear) और "चाह से मुक्ति" (Freedom from Want) दोनों पर बल देता है।

विश्लेषण:

संकीर्ण दृष्टिकोण केवल हिंसा पर केंद्रित है, जबकि व्यापक दृष्टिकोण वास्तविक जीवन के अधिक महत्वपूर्ण पहलुओं को सुरक्षा से जोड़ता है।

आज के युग में महामारियाँ और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे किसी देश की सैन्य शक्ति से भी बड़ा खतरा बन सकते हैं।

3. वैश्विक सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय सहयोग

वैश्विक सुरक्षा की अवधारणा 1990 के दशक में उभरी, जब आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, और स्वास्थ्य महामारियाँ जैसी वैश्विक चुनौतियाँ बढ़ीं।

उदाहरण के लिए:

ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र तल में वृद्धि हो रही है, जिससे बांग्लादेश का 20% क्षेत्र डूब सकता है, मालदीव नष्ट हो सकता है, और थाईलैंड की आधी आबादी खतरे में आ सकती है।

महामारियाँ (HIV/AIDS, बर्ड फ्लू, SARS) अंतरराष्ट्रीय व्यापार और पर्यटन के माध्यम से दुनिया भर में फैल सकती हैं।

विश्लेषण:

ये समस्याएँ इतनी व्यापक हैं कि कोई भी देश अकेले समाधान नहीं निकाल सकता।

अंतरराष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है, लेकिन यह कठिन भी है क्योंकि प्रत्येक देश के अपने स्वार्थ होते हैं।

4. नए प्रकार के खतरे

(A) आतंकवाद (Terrorism)

यह नागरिकों को डराने और राजनीतिक एजेंडा पूरा करने के लिए सुनियोजित हिंसा है।

आतंकवादी संगठन राजनीतिक व्यवस्था को अपने अनुसार बदलने के लिए धमकी या हिंसा का उपयोग करते हैं।

9/11 हमले के बाद आतंकवाद के प्रति वैश्विक सतर्कता बढ़ी।

विश्लेषण:

आतंकवाद की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, और कभी-कभी इसे राजनीतिक कारणों से गलत तरीके से इस्तेमाल किया जाता है।

केवल सैन्य कार्रवाई पर्याप्त नहीं है; आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को दूर करना भी ज़रूरी है, जो आतंकवाद को जन्म देती हैं।

(B) मानवाधिकार (Human Rights)

मानवाधिकारों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:

1. राजनीतिक अधिकार (जैसे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता)

2. आर्थिक और सामाजिक अधिकार (जैसे, शिक्षा और रोजगार का अधिकार)

3. स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकार (जैसे, उपनिवेशवाद के शिकार लोगों के अधिकार)

संयुक्त राष्ट्र (UN) की भूमिका:

कुछ लोग मानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र को मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बल प्रयोग करना चाहिए।

अन्य लोग मानते हैं कि शक्तिशाली देश अपने स्वार्थ के अनुसार कार्रवाई करते हैं।

विश्लेषण:

कई बार मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर सैन्य हस्तक्षेप राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है।

समान वैश्विक नीति की कमी के कारण यह मुद्दा जटिल बना हुआ है।

(C) वैश्विक गरीबी और प्रवासन (Global Poverty and Migration)

दुनिया की आबादी 760 करोड़ से बढ़कर 2050 तक 1000 करोड़ हो जाएगी।

सबसे अधिक जनसंख्या वृद्धि भारत, चीन, पाकिस्तान, नाइजीरिया, बांग्लादेश और इंडोनेशिया में हो रही है।

अमीर देश जनसंख्या कमी का सामना कर रहे हैं, जबकि गरीब देश जनसंख्या विस्फोट झेल रहे हैं।

प्रवास (Migration) और शरणार्थी संकट (Refugee Crisis)

प्रवासियों को नए अवसरों की तलाश में स्वेच्छा से देश छोड़ना पड़ता है।

शरणार्थियों को युद्ध, उत्पीड़न या प्राकृतिक आपदा के कारण भागने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

उदाहरण: कश्मीरी पंडित 1990 के दशक में आंतरिक रूप से विस्थापित (Internally Displaced) हुए।

विश्लेषण:

प्रवासन से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तनाव बढ़ता है।

अमीर देश शरणार्थियों के प्रति दयालुता दिखाने की बजाय अपनी सीमाएँ बंद कर रहे हैं।

(D) स्वास्थ्य महामारियाँ (Health Epidemics)

HIV/AIDS, बर्ड फ्लू, SARS, COVID-19 जैसी महामारियाँ दुनिया भर में तेजी से फैलती हैं।

अफ्रीका में HIV/AIDS एक बड़ा सामाजिक और आर्थिक संकट बना हुआ है।

दवाओं की उच्च लागत गरीब देशों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

विश्लेषण:

महामारियों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और वैश्विक सुरक्षा को एकजुट कर दिया है।

अंतरराष्ट्रीय सहयोग के बिना इन बीमारियों को नियंत्रित करना असंभव है।

5. निष्कर्ष

गैर-पारंपरिक सुरक्षा की अवधारणा सुरक्षा को केवल सैन्य दृष्टिकोण तक सीमित नहीं रखती, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी खतरों को भी शामिल करती है।

आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, गरीबी और महामारियाँ जैसी समस्याएँ आज की दुनिया में सबसे बड़े सुरक्षा खतरे बन चुकी हैं।

अंतरराष्ट्रीय सहयोग और वैश्विक नीति इन समस्याओं का एकमात्र समाधान है।

अतः, सुरक्षा का अर्थ केवल युद्ध से बचाव नहीं, बल्कि मानव कल्याण सुनिश्चित करना भी है।

विश्लेषण: भारत की सुरक्षा रणनीति और सहकारी सुरक्षा की भूमिका

1. सहकारी सुरक्षा का महत्व

सहकारी सुरक्षा (Cooperative Security) की अवधारणा यह दर्शाती है कि आधुनिक सुरक्षा चुनौतियों का समाधान केवल सैन्य शक्ति के माध्यम से संभव नहीं है। वैश्विक समस्याओं जैसे आतंकवाद, गरीबी, महामारी, प्रवासन, पर्यावरणीय संकट आदि से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है। सहकारी सुरक्षा में विभिन्न स्तरों पर (द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक) सहयोग शामिल होता है, जहां संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), रेड क्रॉस, व्यापारिक संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

2. भारत की सुरक्षा रणनीति के चार घटक

भारत ने अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए चार व्यापक रणनीतियाँ अपनाई हैं:

(i) सैन्य शक्ति को मजबूत करना

भारत ने पाकिस्तान और चीन के साथ कई युद्ध लड़े हैं (1947, 1962, 1965, 1971, 1999)।

परमाणु शक्ति प्राप्त करने के लिए 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण किए गए।

दक्षिण एशिया के परमाणु-सशस्त्र पड़ोसी देशों के बीच भारत की रक्षा क्षमता को मजबूत करना अनिवार्य था।

(ii) अंतर्राष्ट्रीय नियमों और संस्थानों को मजबूत करना

भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के माध्यम से वैश्विक राजनीति में संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया।

भारत ने निरस्त्रीकरण और परमाणु अप्रसार (Non-Proliferation) को बढ़ावा देने की वकालत की।

भारत ने 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक प्रयासों का समर्थन किया।

संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भारतीय सेना की भागीदारी भारत की सहकारी सुरक्षा नीति को दर्शाती है।

(iii) आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से निपटना

भारत में विभिन्न विद्रोही और अलगाववादी समूह (नागालैंड, मिजोरम, पंजाब, कश्मीर) समय-समय पर भारत से अलग होने की माँग उठाते रहे हैं।

भारत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से विभिन्न समुदायों और समूहों को अपनी आवाज़ उठाने और सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास किया।

आतंकवाद से निपटने के लिए सुरक्षा बलों और क़ानूनी उपायों को लागू किया गया।

(iv) आर्थिक विकास और सामाजिक समानता

आर्थिक विकास के माध्यम से गरीबी उन्मूलन और सामाजिक असमानता को कम करने का प्रयास किया गया।

लोकतंत्र के माध्यम से नीतिगत निर्णयों में गरीबों और वंचित वर्गों की आवाज़ को शामिल किया गया।

हालांकि आर्थिक असमानता अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, लेकिन लोकतंत्र ने जनता को अपनी समस्याओं को व्यक्त करने का मंच दिया है।

3. निष्कर्ष

भारत की सुरक्षा रणनीति पारंपरिक सैन्य सुरक्षा और गैर-पारंपरिक सुरक्षा दोनों को संतुलित करने का प्रयास करती है। वैश्विक आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक असमानता, और आंतरिक विद्रोह जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, लोकतांत्रिक सशक्तिकरण और सैन्य क्षमता को सुदृढ़ करने की नीति अपनाई है। भविष्य में, सहकारी सुरक्षा की रणनीति और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग भारत की सुरक्षा और समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण रहेगा।


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