राज्य के नीति निदेशक तत्व: कल्याणकारी राज्य का मार्गदर्शक दर्शन
प्रस्तावना: संविधान की आत्मा का जीवंत हिस्सा
भारतीय संविधान का भाग 4, जो अनुच्छेद 36 से 51 तक फैला है, 'राज्य के नीति निदेशक तत्व' (Directive Principles of State Policy – DPSPs) का खजाना है। ये तत्व भारत को एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की ओर ले जाने का सपना दिखाते हैं, जहाँ न केवल राजनीतिक आज़ादी हो, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय भी हर नागरिक तक पहुँचे। ये तत्व भले ही अदालतों में लागू करवाने योग्य न हों, लेकिन ये संविधान की उस चेतना को दर्शाते हैं जो भारत को समता, न्याय और बंधुत्व का देश बनाने की प्रेरणा देती है।
यह संपादकीय लेख भाग 4 के महत्व, इसके ऐतिहासिक और समकालीन संदर्भ, इसकी उपलब्धियों और चुनौतियों को सरल, रुचिकर और गहन तरीके से प्रस्तुत करता है। आइए, इस यात्रा में शामिल हों और समझें कि कैसे ये तत्व आज भी भारत के भविष्य को आकार दे रहे हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: स्वतंत्र भारत का नीतिगत सपना
जब भारत ने 1947 में आज़ादी हासिल की, तब संविधान निर्माताओं के सामने एक सवाल था: स्वतंत्र भारत कैसा होगा? क्या वह केवल औपनिवेशिक शासकों से मुक्ति तक सीमित रहेगा, या वह अपने नागरिकों को सामाजिक और आर्थिक बराबरी का हक देगा? इस सवाल का जवाब देने के लिए संविधान सभा ने भाग 4 को आकार दिया।
नीति निदेशक तत्वों की प्रेरणा आयरलैंड के संविधान से मिली, जो सामाजिक और आर्थिक कल्याण पर जोर देता था। साथ ही, जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी सोच, महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के विचार और स्वाधीनता संग्राम की भावना ने इसे भारतीय रंग दिया। संविधान सभा ने यह भी स्पष्ट किया कि ये तत्व भले ही तुरंत लागू न हों, लेकिन ये सरकारों के लिए एक नैतिक और नीतिगत कम्पास की तरह काम करेंगे।
नीति निदेशक तत्वों का स्वरूप: तीन रंगों का इंद्रधनुष
भाग 4 के तत्वों को तीन मुख्य धाराओं में बाँटा जा सकता है, जो भारत के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लक्ष्यों को दर्शाते हैं। आइए, इन्हें सरलता से समझें:
समाजवादी तत्व: समानता का सपना
अनुच्छेद 38: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को बढ़ावा देना।
अनुच्छेद 39: धन और संसाधनों का बँटवारा ऐसा हो कि वह सबके हित में हो; पुरुष-महिलाओं को समान वेतन; बच्चों का स्वस्थ विकास।
अनुच्छेद 41: काम, शिक्षा और जरूरतमंदों को सहायता का अधिकार।
अनुच्छेद 43: श्रमिकों को सम्मानजनक जीवन और उचित मजदूरी।
ये तत्व भारत को एक ऐसा समाज बनाने की दिशा में ले जाते हैं, जहाँ अमीरी-गरीबी की खाई कम हो और हर व्यक्ति को बराबरी का मौका मिले।
गांधीवादी तत्व: गाँवों में बसता भारत
अनुच्छेद 40: ग्राम पंचायतों को सशक्त करना, ताकि गाँव आत्मनिर्भर बनें।
अनुच्छेद 43: कुटीर उद्योगों और हस्तशिल्प को बढ़ावा देना।
अनुच्छेद 47: शराब और नशीले पदार्थों पर रोक; पोषण और स्वास्थ्य में सुधार।
ये तत्व गांधीजी के 'स्वराज' के सपने को जीवंत करते हैं, जहाँ गाँव भारत की रीढ़ हों और हर व्यक्ति आत्मनिर्भर हो।
उदार और मानवतावादी तत्व: आधुनिकता का स्पर्श
अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करना, ताकि सभी धर्मों और समुदायों के लिए एक कानून हो।
अनुच्छेद 45: बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा।
अनुच्छेद 48: कृषि और पशुपालन को वैज्ञानिक तरीके से विकसित करना।
ये तत्व भारत को एक आधुनिक, समावेशी और वैज्ञानिक सोच वाला देश बनाने की दिशा में प्रेरित करते हैं।
संवैधानिक स्थिति: नीति निदेशक तत्वों का अनोखा स्थान
अनुच्छेद 37 कहता है कि नीति निदेशक तत्व अदालतों में लागू करवाए नहीं जा सकते, लेकिन ये राज्य के लिए नीतियाँ बनाने का आधार हैं। इसे आप एक ऐसे नक्शे की तरह समझ सकते हैं, जो सरकार को सही रास्ता दिखाता है, भले ही उस रास्ते पर चलना अनिवार्य न हो।
हालांकि, समय के साथ भारत की न्यायपालिका ने इन तत्वों को मौलिक अधिकारों (भाग 3) के साथ जोड़कर इन्हें और मज़बूत किया। कुछ महत्वपूर्ण फैसले इस तरह हैं:
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नीति निदेशक तत्व और मौलिक अधिकार संविधान के दो पहिए हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं।
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): कोर्ट ने दोहराया कि इन दोनों के बीच संतुलन जरूरी है।
ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (1985): कोर्ट ने कहा कि जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21) सिर्फ जीने तक सीमित नहीं, बल्कि सम्मानजनक जीवन से जुड़ा है, जिसमें नीति तत्वों की भूमिका है।
इन फैसलों ने नीति तत्वों को केवल कागजी आदर्शों से बाहर निकालकर वास्तविक बदलाव का ज़रिया बनाया।
उपलब्धियाँ: नीति निदेशक तत्वों को साकार करने की कोशिश
स्वतंत्रता के बाद भारत ने नीति निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए कई कदम उठाए। कुछ प्रमुख उदाहरण हैं:
शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 45 → अनुच्छेद 21A):
2002 में 86वें संविधान संशोधन ने 6-14 साल के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया। 2009 का शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) इस दिशा में मील का पत्थर है।
काम और सामाजिक सुरक्षा (अनुच्छेद 41, 43):
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, मनरेगा (2005), और आयुष्मान भारत जैसी योजनाएँ श्रमिकों और जरूरतमंदों को सम्मानजनक जीवन देने की कोशिश हैं।
खाद्य सुरक्षा (अनुच्छेद 47):
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) ने लाखों लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराकर पोषण स्तर सुधारने की दिशा में काम किया।
ग्राम स्वराज (अनुच्छेद 40):
73वें और 74वें संविधान संशोधन (1992) ने पंचायती राज और स्थानीय निकायों को सशक्त कर गांधीजी के सपने को हकीकत में बदलने की कोशिश की।
पर्यावरण और पशु कल्याण (अनुच्छेद 48, 48A):
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) और जैव विविधता संरक्षण जैसे कदम इस दिशा में उठाए गए।
हालांकि, समान नागरिक संहिता (अनुच्छेद 44) जैसे कुछ तत्व अभी भी पूरी तरह लागू नहीं हो सके, लेकिन इस पर बहस और चर्चा जारी है।
समकालीन चुनौतियाँ: सपने और हकीकत का अंतर
नीति निदेशक तत्वों ने भारत को एक दिशा दी, लेकिन कई चुनौतियाँ आज भी बाकी हैं:
आर्थिक असमानता:
ऑक्सफैम की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 1% अमीरों के पास 40% से ज्यादा संपत्ति है। अनुच्छेद 39(b-c) के बावजूद धन का बँटवारा असमान है।
शिक्षा और स्वास्थ्य में असमानता:
शिक्षा और स्वास्थ्य तक पहुँच में ग्रामीण-शहरी और अमीर-गरीब के बीच बड़ा अंतर है। सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति सुधार की जरूरत है।
गांधीवादी आदर्शों की अनदेखी:
कुटीर उद्योग, शराब निषेध और ग्रामीण आत्मनिर्भरता जैसे विचार आधुनिक आर्थिक नीतियों में पीछे छूट गए।
समान नागरिक संहिता का विवाद:
अनुच्छेद 44 पर धार्मिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलताओं के कारण सहमति बनाना मुश्किल रहा। यह एकता और विविधता के बीच संतुलन का सवाल है।
पर्यावरण और विकास का टकराव:
अनुच्छेद 48A पर्यावरण संरक्षण की बात करता है, लेकिन औद्योगीकरण और शहरीकरण के दबाव में यह लक्ष्य चुनौतीपूर्ण है।
क्या करें? राज्य, नागरिक और न्यायपालिका की भूमिका
राज्य की जिम्मेदारी:
सरकार को नीति निदेशक तत्वों को नीति-निर्माण का आधार बनाना चाहिए। बजट में शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देनी होगी। पारदर्शी और प्रभावी योजनाएँ जरूरी हैं।
नागरिकों का योगदान:
भारत का हर नागरिक संविधान का हिस्सा है। हमें जागरूक होकर सामाजिक न्याय के लिए आवाज़ उठानी होगी। जनहित याचिकाएँ और सामुदायिक पहल इस दिशा में मदद कर सकती हैं।
न्यायपाल :
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने बार-बार नीति तत्वों को मौलिक अधिकारों से जोड़ा है। न्यायपालिका को इस सक्रियता को और बढ़ाना होगा, ताकि सरकारें जवाबदेह रहें।
निष्कर्ष: नीति निदेशक तत्वों की पुनर्खोज
राज्य के नीति निदेशक तत्व केवल कागज़ पर लिखे आदर्श नहीं हैं। ये भारत के उस सपने का हिस्सा हैं, जो हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन, बराबरी और न्याय देना चाहता है। आज, जब भारत आर्थिक और तकनीकी प्रगति की ऊँचाइयों को छू रहा है, तब इन तत्वों को फिर से प्राथमिकता देने की जरूरत है।
भाग 4 हमें याद दिलाता है कि विकास का मतलब सिर्फ चमकती इमारतें और चौड़ी सड़कें नहीं, बल्कि वह समाज है जहाँ कोई भूखा न सोए, कोई अशिक्षित न रहे और कोई अन्याय का शिकार न हो। यदि मौलिक अधिकार (भाग 3) संविधान का दिल हैं, तो नीति निदेशक तत्व उसकी धड़कन हैं।
सवाल यह है: क्या भारत इस धड़कन को और मज़बूत करेगा? यह सवाल ही हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती और अवसर है।
Comments
Post a Comment