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Class 9 – History Chapter 1: The French Revolution

📘 Chapter 1: The French Revolution – Summary 🔰 Introduction: The French Revolution began in 1789 and is one of the most significant events in world history. It marked the end of monarchy in France and led to the rise of democracy and modern political ideas such as liberty, equality, and fraternity . 🏰 France Before the Revolution: Absolute Monarchy: King Louis XVI ruled France with complete power. He believed in the Divine Right of Kings. Social Structure (Three Estates): First Estate: Clergy – privileged and exempt from taxes. Second Estate: Nobility – also exempt from taxes and held top positions. Third Estate: Common people (peasants, workers, merchants) – paid all taxes and had no political rights. Economic Crisis: France was in heavy debt due to wars (especially helping the American Revolution). Poor harvests and rising food prices led to famine and anger among the poor. Tax burden was unfairly placed on the Third Estate. Ideas of Enlightenmen...

मेरे संपादकीय लेख

मेरे संपादकीय लेख


ग्रीनलैंड की खरीद: एक राजनीतिक खेल या रणनीतिक आवश्यकता?

2019 में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा ग्रीनलैंड को खरीदने का प्रस्ताव दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया। यह विचार केवल एक व्यावसायिक निर्णय नहीं था, बल्कि इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक दृष्टिकोण से भी देखा गया। ग्रीनलैंड, जो दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप है, उत्तरी ध्रुव के पास स्थित होने के कारण आर्कटिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति रखता है। इसके प्राकृतिक संसाधन, जैसे खनिज और तेल, और वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण उत्पन्न हो रहे नए शिपिंग मार्ग, इसे किसी भी देश के लिए आकर्षक बनाते हैं। लेकिन, क्या ग्रीनलैंड को खरीदने का प्रस्ताव केवल एक राजनीतिक खेल था या यह वास्तव में एक रणनीतिक आवश्यकता थी?

राजनीतिक दृष्टिकोण:

ग्रीनलैंड डेनमार्क का हिस्सा है, और डेनमार्क ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस प्रस्ताव को अमेरिकी हितों के बजाय, एक वैश्विक स्तर पर मंथन के रूप में देखा जा रहा था। डोनाल्ड ट्रंप का यह विचार राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देने वाला था, खासकर तब जब अमेरिका आर्कटिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाना चाहता था। लेकिन यह प्रस्ताव वैश्विक राजनीति में तनाव और विरोध का कारण बना।

आर्थिक और सामरिक महत्व:

ग्रीनलैंड का सामरिक महत्व बहुत गहरा है। इसके प्राकृतिक संसाधन, जैसे सोना, तांबा, और यूरेनियम, इसके अर्थव्यवस्था को एक महत्वपूर्ण तत्व बनाते हैं। साथ ही, आर्कटिक क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के कारण नए जलमार्गों का खुलना, समुद्री व्यापार के लिए एक नया अवसर प्रदान करता है। इस संदर्भ में, ग्रीनलैंड का अधिग्रहण अमेरिका के लिए एक रणनीतिक आवश्यकता हो सकता था, खासकर जब चीन और रूस जैसे प्रतिस्पर्धी देशों का ध्यान भी इस क्षेत्र पर है।

विरोध और आलोचना:

हालांकि, इस विचार को कुछ विशेषज्ञों और आलोचकों द्वारा अत्यधिक आलोचना का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि यह विचार ग्रीनलैंड की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर सवाल उठाता था। ग्रीनलैंड के लोग, जो डेनमार्क से राजनीतिक स्वतंत्रता रखते हुए अपने आंतरिक मामलों में स्वायत्तता का आनंद लेते हैं, इस प्रस्ताव से नाखुश थे। डेनमार्क और ग्रीनलैंड के नेताओं ने साफ तौर पर इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और इसे "विचित्र" और "अपमानजनक" करार दिया।

निष्कर्ष:

ग्रीनलैंड को खरीदने का विचार, चाहे वह राजनीतिक खेल हो या सामरिक आवश्यकता, अंततः एक विवादास्पद कदम साबित हुआ। यह दिखाता है कि वैश्विक राजनीति में शक्ति, रणनीति और संसाधनों का महत्व कितना बड़ा होता है। हालांकि इस प्रस्ताव का कोई ठोस परिणाम नहीं निकला, लेकिन इसने आर्कटिक क्षेत्र की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पर नए दृष्टिकोणों को जन्म दिया। ग्रीनलैंड की सुरक्षा, उसकी स्वायत्तता, और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए यह एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है।


विद्यार्थी जीवन में ऊर्जा स्तर को सदैव संतुलित रखें।


विद्यार्थी जीवन में फिजिकल एनर्जी, मेंटल एनर्जी, मोटिवेशनल एनर्जी, और स्पिरिचुअल एनर्जी का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये सभी मिलकर विद्यार्थियों को उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने और जीवन में संतुलन बनाए रखने में सहायता करती हैं। आइए इनका महत्व विस्तार से समझते हैं:

1. फिजिकल एनर्जी (शारीरिक ऊर्जा)

महत्व:

यह विद्यार्थी की शारीरिक सक्रियता और स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करती है।

कैसे मदद करती है:

लंबे समय तक पढ़ाई करने की क्षमता बढ़ती है।

रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहती है।

नियमित व्यायाम और सही खान-पान से शरीर ऊर्जावान रहता है।

प्रभाव:

शारीरिक रूप से स्वस्थ विद्यार्थी अधिक समय तक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और थकान महसूस नहीं करते।

2. मेंटल एनर्जी (मानसिक ऊर्जा)

महत्व:

मानसिक ऊर्जा विचारों, निर्णय लेने, और रचनात्मकता के लिए आवश्यक है।

कैसे मदद करती है:

ध्यान केंद्रित रखने में सहायता करती है।

समस्याओं का समाधान निकालने की क्षमता विकसित होती है।

आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच बनाए रखती है।

प्रभाव:

मानसिक रूप से मजबूत विद्यार्थी चुनौतियों का सामना आसानी से कर सकते हैं।

3. मोटिवेशनल एनर्जी (प्रेरणात्मक ऊर्जा)

महत्व:

यह ऊर्जा विद्यार्थियों को लक्ष्य हासिल करने की प्रेरणा देती है।

कैसे मदद करती है:

असफलताओं से निराश न होकर आगे बढ़ने का जज्बा देती है।

सपनों को हकीकत में बदलने के लिए मेहनत करने की ताकत देती है।

अपने आदर्श या रोल मॉडल से प्रेरणा लेकर बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रेरित करती है।

प्रभाव:

प्रेरित विद्यार्थी आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बनते हैं।

4. स्पिरिचुअल एनर्जी (आध्यात्मिक ऊर्जा)

महत्व:

यह ऊर्जा विद्यार्थियों के आंतरिक संतुलन और मानसिक शांति के लिए आवश्यक है।

कैसे मदद करती है:

तनाव को कम करती है और मन को शांत रखती है।

ध्यान और योग के माध्यम से आत्म-नियंत्रण विकसित होता है।

नैतिक मूल्यों को बनाए रखने में मदद करती है।

प्रभाव:

आध्यात्मिक ऊर्जा से विद्यार्थी नैतिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनते हैं।

संतुलन का महत्व

इन चारों प्रकार की ऊर्जा का सही संतुलन विद्यार्थियों के समग्र विकास में मदद करता है।

संतुलित ऊर्जा से वे शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक रूप से मजबूत बनते हैं।

यह उन्हें न केवल शैक्षिक उपलब्धियों में बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में भी सफल बनाता है।

निष्कर्ष

विद्यार्थी जीवन में इन ऊर्जाओं का सही उपयोग जीवन को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इनका पोषण ध्यान, योग, नियमित व्यायाम, सही खान-पान, प्रेरणादायक साहित्य पढ़ने और आत्म-चिंतन के माध्यम से किया जा सकता है।


हमारा संविधान : गीता कुरान बाइबल जितना पवित्र

आज गणतंत्र दिवस(26 जनवरी) है। आज ही के दिन हमारे देश का संविधान पूर्ण रूप से लागू हुआ था। कुछ लोग सवाल करते हैं कि जब भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बन कर तैयार हो गया था, तो उसे लागू करने में दो महीने की देरी क्यों की गई? तो इसका जवाब है कि 26 जनवरी का ऐतिहासिक महत्व है। सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को युवा अध्यक्ष के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरु मिले। उन्होंने 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में रावी नदी के किनारे आजाद भारत के प्रतीक तिरंगा झंडा को फहरा कर यह संकल्प लिया कि पूर्ण आजादी से कम हम कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे और अपने इस संकल्प को तरोताजा रखने के लिए यह भी प्रस्ताव पास किया गया कि अगले 26 जनवरी को सांकेतिक रूप से स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। इस प्रकार 1930 से हम 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते चले आ रहे थे लेकिन देश की आजादी के बाद 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाने लगे। तब यह निर्णय हुआ कि 26 जनवरी को हम संविधान को लागू करके गणतंत्र दिवस के रूप में मनाएंगे। अर्थात हमारा देश न केवल सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न है अपितु गणतंत्र भी है अर्थात हमारा राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि होगा और यह सब संविधान के द्वारा किया गया।


हमारा संविधान गीता कुरान बाइबल की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी के द्वारा हमें गरिमामय जीवन जीने का अधिकार मिला है। संविधान लागू होने के बाद ही हम नागरिक बने हैं क्योंकि अधिकार विहीन जनता प्रजा कहलाती है, जबकि अधिकार युक्त जनता नागरिक। इससे पूर्व हम भारत की प्रजा थे क्योंकि इससे पूर्व हमारे केवल कर्तव्य थे अधिकार नहीं थे और ये कर्तव्य निरंकुश शासन द्वारा हमारे ऊपर थोपे गए थे। यदि हम इन कर्तव्यों पालन नहीं करते थे तो हमें कठोर दंड मिलता था।

समानता के अधिकार हमें संविधान द्वारा ही मिले हैं। आज कानून का शासन है और कानून की नजर में राजा और रंक एक समान हैं। सबको कानून का समान रूप से संरक्षण प्राप्त है। सार्वजनिक स्थलों पर नस्ल, जाति, धर्म, लिंग या अन्य किसी भी आधार पर विभेद निषेध किया गया है। सरकारी सेवाओं में सबको समान अवसर उपलब्ध कराया गया है। इतना ही नहीं समाज के कमजोर और गरीब वर्ग के लोगों को विशेष सुविधाएं भी दी गई हैं। संविधान लागू होने से पहले समाज का एक वर्ग अछूत माना जाता था, उनका तिरस्कार किया जाता था अतः संविधान के द्वारा अस्पृश्यता निषेध किया गया। ऐसे वर्ग के लोगो को समाज में बराबरी का दर्जा दिया गया।

पहले राजनीतिक पदों को पाने का अधिकार समाज के अगड़े वर्ग के लोगों तक ही सीमित था लेकिन आज कोई भी व्यक्ति चाहे जिस जाति धर्म लिंग का हो, नीचे से ऊपर तक के सभी पदों के लिए पात्र समझा जाता है। इतना ही नहीं अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को शासन व्यवस्था में पर्याप्त भागीदारी प्रदान करने के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण भी दिया गया है। पहले महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक सीमित था, आज उन्हें मताधिकार प्राप्त है, उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमता से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पदों को भी शुशोभित किया है। यह सब हमारे संविधान की देन है।

आजादी के पूर्व ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की दुर्दशा से सभी परिचित हैं लेकिन इसके पहले भी भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था संतोष जनक नहीं थी। सामंतवादी व्यवस्था में गरीबों, किसानों और मजदूरों के खून पसीने की कमाई सामंत व राजपरिवार के लोग अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए बर्बाद करते थे। उत्पादन के साधनों पर समाज के एक वर्ग का एकाधिकार था। अमीर वर्ग द्वारा गरीबों का विभिन्न प्रकार से शोषण होता था। अतः संविधान द्वारा बलातश्रम, बेगारश्रम, बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, दास प्रथा, देवदासी प्रथा का निषेध किया गया।

मध्यकाल में बलात धर्म परिवर्तन कराया जाता था अतः संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपने पसंद के धर्म को मानने और उसके अनुसार आचरण करने का अधिकार दिया गया है, बलात धर्म परिवर्तन निषेध किया गया है। देश के सभी नागरिकों को वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है।

संपत्ति को अर्जित करने, उसका संग्रहण करने, उसका उपभोग करने तथा उसका विक्रय करने का प्रत्येक नागरिक को विधिक अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं इन अधिकारों के संरक्षण का भी अधिकार दिया गया।
इसके अतिरिक्त आने वाली सरकारों को यह भी निर्देश दिया गया है वे सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना की दिशा में आवश्यक कदम उठाएगी। अमीरों और गरीबों के बीच की दूरी को कम करने का प्रयास करेंगी। कार्य के न्यायोचित दशाओं की बात की गई है। समाज के कमजोर और गरीब वर्ग के लोगों को शिक्षा एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु विशेष प्रावधान किए जाने की बात कही गई है। बेगार बीमार वृद्ध निःशक्त लोगो को विशेष सहायता हेतु निर्देशित किया गया है। इतना ही नहीं विश्व शांति की बात भी हमारे संविधान में की गई है। संविधान में हमारे कर्तव्यों की भी बात की गई है। अब हमारा कर्तव्य है कि हम संविधान का अनुसरण करें, अपने कर्तव्यों का पालन करें। कुछ लोग अपने कर्तव्यों की बात नहीं करते केवल अधिकारों की बात करते हैं, उनको यह पता नहीं कि आपके कर्तव्य ही दूसरों के अधिकार है। ऐसे लोग फिर संविधान को दोष देने लगते हैं। इस संदर्भ में मै संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर द्वारा दिए गए अंतिम उद्बोधन (25 नवम्बर 1949 को) का उल्लेख करना चाहता हूँ कि " संविधान चाहे जितना अच्छा हो यदि उसे संचालित करने वाले लोग बुरे हैं तो वह निश्चित ही बुरा साबित होगा। "

यदि ईश्वर का भी पृथ्वी पर अवतरण होता है तो वे भी लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहेंगे। ऐसी दशा में वे वहीं कुछ करेंगे जैसा की हमारा संविधान कहता है। अतः यह कहा जा सकता है कि हमारा संविधान ईश्वर की इच्छा की अभिव्यक्ति है। यह हमारे लिए उतना ही पूज्य और अनुकरणीय है जितना कि गीता, कुरान या बाइबल।


ईवीएम के साथ छेड़छाड़ का राग फिर शुरू


मध्य प्रदेश विधानसभा उपचुनाव और बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की बात फिर शुरू हो गई है। जब भी किसी पार्टी को चुनाव में जीत मिलती है तो वह ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की बात भूल जाता है लेकिन यदि चुनाव में पराजय मिलती है, तो ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की बात करके अपनी हार पर पर्दा डालने लगते हैं।अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता भी ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं, जिन्हें ईवीएम से ही सत्ता मिली है, तो आम लोगों के मन में ऐसे सवाल उठना जायज है। आइये जानते हैं कि किस कारण से आज के समय में बैलट पेपर के माध्यम से मतदान अव्यवहारिक हो गया है तथा ईवीएम के बिना चुनाव कराना अनुचित प्रतीत होता है। साथ ही यह भी जानते कि क्या ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है?

भारत की जनसंख्या बहुत अधिक है। यदि बैलेट पेपर से चुनाव होंगे तो मतगणना में बहुत अधिक समय लगेगा। दूसरी बात भारत में अभी भी पर्याप्त मतदाता या तो साक्षर नहीं हैं और साक्षर हैं तो शिक्षित नहीं हैं, जिसके कारण ढेर सारे मत बेकार हो जाते हैं। पंचायत चुनाव का मतदान अभी भी बैलेट पेपर से ही होता है। मतगणना के समय मैंने स्वयं देखा है कि ढेर सारे मत बेकार हो जाते हैं। कई मतदाता बैलेट पेपर को मोड़ने में गलती कर देते हैं जिससे दो प्रत्याशियों के एरिया में स्याही लग जाती है। कभी कभी मतदाता दो या अधिक प्रत्याशियों को मत दे देते हैं और कुछ मतदाता दो प्रत्याशियों के बॉर्डर लाइन एरिया में सील लगाते हैं जिससे इस बात का निर्णय नहीं हो पाता है कि वास्तव में मत किसे दिया गया है।

कुछ लोगों का तर्क है कि जापान जैसा उच्च तकनीकी से युक्त देश ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर के माध्यम से मतदान को श्रेष्ठ मानता है और अपने यहाँ मतदान बैलेट पेपर से ही करवाता है। फिर हम क्यों ईवीएम के पीछे भाग रहे हैं।इसका उत्तर यह है कि जापान की जनसंख्या कम है और वहां के लोग शिक्षित हैं, अतः त्रुटि बहुत कम करते हैं। अतः न तो मतगणना में बहुत अधिक समय लगता है और न ही मत बेकार होते हैं।

रही बात ईवीएम से जुड़ी हुई कुछ प्रॉब्लम्स की तो उन प्रॉब्लम्स के कारण बैलेट पेपर की ओर रोल बैक होते हैं तो यह वैसा ही होगा जैसे मोटर कार पंचर हो जाती है इसलिए बैलगाड़ी से चलने की सलाह देना। अर्थात ईवीएम की कमियों को दूर करने की बात करना बुद्धिमानी होगी न की बैलेट पेपर की ओर दुबारा लौटा जाए।

कुछ लोग ईवीएम के हैक होने, छेड़छाड़ होने की बात करते हैं ये सभी बातें निराधार हैं। इनमें नेट कनेक्टिविटी नहीं होती है अतः हैक नहीं हो सकती। छेड़छाड़ होने की बात की जाए तो पीठासीन अधिकारी पार्टी अभिकर्ताओं के सम्मुख तीन तीन प्रकार की सील पर सभी के हस्ताक्षर के साथ ईवीएम को सील करता है। यदि छेड़छाड़ किया जाएगा तो सील टूट जाएगी। नई सील लगाने पर उनके क्रमांक परिवर्तित हो जाएंगे और हस्ताक्षर भी। प्रत्येक बूथ पर पार्टी अभिकर्ताओं को चुनाव समाप्ति के जस्ट बाद प्रमाण के तौर पर मतपत्र लेखा दिया जाता है जिसमें सीलों का क्रमांक दर्ज रहता है, हस्ताक्षर का प्रारूप रहता है। मतगणना के समय जब ईवीएम को खोला जाता तो पार्टी अभिकर्ता उपस्थित रहते हैं, यदि ईवीएम से छेड़छाड़ हुआ है तो तुरंत शिकायत करनी चाहिए। चुनाव हारने के बाद ईवीएम पर सवाल उठाकर अपनी हार पर पर्दा डालते है और कुछ नहीं। कुछ प्रबुद्ध लोग कहते हैं कि ईवीएम का सॉफ्टवेयर ही इस प्रकार बनाया जा सकता है कि आप चाहे जिस को वोट दें लेकिन वह एक ही उम्मीदवार के पक्ष में जाएगा। ऐसा संभव है लेकिन VVPAT के आजाने से ये भी संभावना समाप्त हो गई हैं हालांकि पहले भी ऐसा होता नहीं था। मॉक पोल करके सभी अभिकर्ताओं को दिखा दिया जाता है कि ईवीएम का सॉफ्टवेयर सही काम कर रहा है।इन सब के बाद भी ईवीएम के साथ छेड़छाड़ का राग अलापना जनादेश का अपमान करना है।

संपादकीय लेख : भारत मेरा भाग्य विधाता

दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित मेरा यह लेख


सोशल मीडिया पर मैंने एक प्रश्न पर चर्चा होते देखा कि कुछ लोग भारत माता की जय और वन्दे मातरम् कहने से हिचकिचाते हैं।कुछ लोग खुल कर विरोध करते हैं और कुछ लोग पीठ पीछे।इस सन्दर्भ में सवाल है कि क्या ईश्वर भक्ति और राष्ट्रभक्ति में कोई विरोध है या दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तथा इनमें कोई विरोध नहीं है??इस प्रश्न के उत्तर में मै यही कहना चाहता हूं किराष्ट्रभक्ति और ईश्वरभक्ति में कोई विरोध नहीं। कुछ वर्षों पहले इलाहाबाद के एक स्कूल में राष्ट्रगान के न गाये जाने तथा इसके पक्ष में प्रबंधक के तर्क "भारत हमारा भाग्य विधाता नहीं है" को जानने के बाद हमें यह बात समझ में आती है कि देश को आजाद हुए भले ही 72 वर्ष हो गए हो, लेकिन हम अपने आपको स्वतंत्र नहीं कह सकते क्योकि स्वतंत्रता का मतलब होता है 'आत्मनिर्णय की आजादी'। यह बात चाहे देश के लिए हो या व्यक्ति के लिए। देश की आजादी के साथ देश की स्वतंत्रता का प्रश्न तो समाप्त हो गया है लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न पहले जैसा ही बना हुआ है क्योकि आत्मनिर्णय की आजादी के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि आपके ऊपर वाह्य बंधनों का आभाव हो वल्कि यह भी आवश्यक है की हम बौद्धिक रूप से इतने सक्षम हो कि आत्मनिर्णय कर सके, सही-गलत में भेद कर सकें। आलम तो यह है कि कोई भी सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आपको अपना बौद्धिक शिकार बना लेता है। उदाहरण के तौर पर जितने भी फिदाईन हैं वे किसी ना किसी के बौद्धिक शिकार हैं। इसी प्रकार के ढेर सारे उदहारण दिए जा सकते हैं। ऐसे लोग किसी भी दशा में स्वतन्त्र नहीं कहे जा सकते। यदि हम सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो आपको यह ज्ञात होगा की ईश्वर की भक्ति और राष्ट्रभक्ति में कोई विरोध नहीं है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं क्योकि दोनों का उद्देश्य एक है। ईश्वर की इच्छाओं की अभिव्यक्ति राज्य द्वारा होती हैं। यदि पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण हो जाये तो ईश्वर भी वहीँ कुछ करेगा जो एक लोक कल्याणकारी आदर्श राज्य करता है। इसी लिए शायद महान जर्मन दार्शनिक हीगल ने राज्य को पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण माना था। लेकिन इस बात को समझने के लिए हमें पूर्वाग्रह से मुक्त होकर स्वविवेक का इस्तेमाल करना होगा, विवेकवान बनना होगा।

संपादकीय लेख : वर्तमान राजनीति में गांधीवाद की प्रासंगिकता

मेरा यह लेख राष्ट्रीय समाचार पत्र जनसत्ता नई दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है।माननीय प्रधानमंत्री मोदीजी यह आह्वान किए हैं कि गांधीजी के विचारों के प्रचार प्रसार हेतु सिने जगत को आगे आना चाहिए तथा उनके विचारों पर आधारित फिल्में बनना चाहिए। लेकिन इस संबंध में मै यह कहना चाहता हूँ कि आम जनता को गांधीजी के विचारों को समझने से ज्यादा जरूरी है कि राजनीति से जुड़े लोग गांधीजी के विचारों समझे और उसका अनुसरण करें। इस संदर्भ में गांधीजी का जो विचार सबसे ज्यादा प्रासंगिक है वह है "राजनीति का आध्यात्मीकरण"।

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में फैली बुराइयों को समाप्त करने का सबसे प्रभावी गांधीवादी विचार है- राजनीति का आध्यात्मीकरण। वर्तमान राजनीति की बुराइयों जैसे भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, अवसरवाद आदि को समाप्त करके उसके स्थान पर राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वोदय, सत्य, अहिंसा, नैतिकता, परोपकार, सादगी, समर्पण, सेवाभाव, त्याग और बलिदान जैसे मूल्यों को राजनीति में शामिल करना ही राजनीति का आध्यात्मीकरण है।

प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारक कौटिल्य राजनीति को धर्म और नैतिकता से अलग कर के देखते थे। उनका कहना था कि राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शाम दाम दण्ड भेद किसी भी नीति का अनुसरण किया जा सकता है। अर्थात हमारा साध्य शुभ है तो साधनों की परवाह नहीं करनी चाहिए। कौटिल्य ने अपने अखंड भारत के सपने को साकार करने के लिए उक्त मार्ग का ही अनुसरण किया। पाश्चात्य राजनीति में इन विचारों का प्रणेता मैकियावली को माना जाता है इसी लिए कौटिल्य को भारत का मैकियावली कहा जाता है।

लेकिन आधुनिक भारतीय चिंतक गांधीजी कौटिल्य और मैंकियावली के विचारों के विपरीत विचार रखते हैं। गांधीजी का मानना था कि न केवल साध्य पवित्र होना चाहिए बल्कि साधन भी पवित्र होना चाहिए। इसीलिए गांधीजी स्वतंत्रता के लिए हिंसक मार्ग का समर्थन न करके सत्याग्रह असहयोग सविनय अवज्ञा सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी प्राप्त करने की राह देशवासियों को दिखाते हैं। गांधीजी के इन्हीं विचारों को राजनीति का आध्यात्मीकरण कहते हैं।

राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। राज्य को केवल ईश्वर की इच्छा का क्रियान्वयन करना चाहिए अर्थात कोई भी कानून बनाते समय विधायिका को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या यह ईश्वर की इच्छा के अनुरूप है? यदि है तो उसे कानून का रूप देना उचित होगा अन्यथा उसे पारित होने से विधायकों को रोकना होगा। इसी प्रकार कार्यपालिका के सदस्यों को ईश्वर के एजेंट के रूप में कार्य करना चाहिए। उनको सदैव इस बात पर विचार करते रहना होगा कि मेरे जगह पर यदि ईश्वर स्वयं होते तो वो क्या करते तथा अन्तःप्रज्ञा की आवाज के अनुसार कार्य करना चाहिए क्योंकि अन्तःप्रज्ञा की आवाज ईश्वर की आवाज मानी जाती है। इसी प्रकार न्यायपालिका को भी विधिक न्याय के स्थान पर सामाजिक एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन करते हुए न्याय करना चाहिए।

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गणित शिक्षण में सुधार की जरूरत

पहले यह माना जाता था कि हम विज्ञान के क्षेत्र में भले ही पीछे हो लेकिन गणित के क्षेत्र में बहुत आगे हैं। नोबेल पुरस्कारों के वितरण के समय हमारे देश में इस संदर्भ में अवश्य चर्चा होती है लेकिन क्या आपको यह पता है कि गणित के क्षेत्र में दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार एबेल अब तक केवल एक भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास एस आर वर्धन (2007 में) को ही प्राप्त है। अर्थात हम गणित के क्षेत्र में भी पिछड़ते चले जा रहे हैं। एक बार आईआईआईटी इलाहाबाद में सेमिनार चल रहा था जिसमें सभी वक्ता नोबेल पुरस्कार विनर थे। वहां दर्शक दीर्घा से एक सवाल पूछा गया कि क्या कारण है कि भारत के लोग गणित और विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे होते हुए भी नोबेल जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों को पाने में पीछे रह जाते हैं? प्रश्नकर्ता का इशारा चयन प्रक्रिया में भेदभाव की तरफ था लेकिन वैज्ञानिकों ने जो जवाब दिया वह सभी भारतीयों की बोलती बंद करने वाला था। उत्तर में यह बात निकलकर आयी कि भारतीय लोग गणित और विज्ञान को अलग अलग करके पढ़ते हैं जिसके कारण वे गणित के अनुप्रयोग को सही से समझ नहीं पाते हैं। भारत में प्योर मैथमेटिक्स पर विशेष वर्क किया जाता है जबकि यूरोप और अमेरिका में एप्लाइड मैथमेटिक्स पर अधिक वर्क किया जाता है। इसीलिए भारतीय गणित में पीछे होते जा रहे हैं। दूसरी ओर भारतीय लोग विज्ञान में इसलिए पीछे हैं क्योंकि वे ज्योतिष को भी विज्ञान समझते हैं। यहां के लोग शुद्ध विज्ञान और अर्ध विज्ञान की सीमा रेखा को नहीं समझ पाते हैं इसीलिए वे विश्व स्तरीय रिसर्च में पिछड़ जाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमारी उपलब्धियां शून्य है। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन का कहना था कि "हमें भारतीयों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने हमें गणना करना सिखाया नहीं तो भौतिक विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतनी तरक्की नहीं हो पाती। " आइंस्टीन के उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि गणना करना हमने ही विश्व को सिखाया और हमारे इस ज्ञान का उपयोग करके यूरोप एवं अमेरिका आगे निकल गए जबकि हम पिछड़ गए। आइंस्टीन के कथन का दूसरा अर्थ यह है कि गणित और विज्ञान अंतर्संबंधित हैं। विज्ञान के लिए गणित साधन की तरह है। प्रयोगों से प्राप्त प्रेक्षणों का परिकलन करना पड़ता है अर्थात गणित को उसके अनुप्रयोग के साथ ही देखा जाना चाहिए लेकिन हमारे देश की विडंबना ऐसी है कि गणित के अच्छे जानकार गणित के अनुप्रयोग को उतने अच्छे से नहीं जानते जितना कि जानना चाहिए। उदाहरण के तौर पर जब विद्यार्थी गणित के शिक्षकों से अवकलन, समाकलन, अवकलन समीकरण और समाकलन समीकरण के अनुप्रयोग पर सवाल उठाते हैं तो शिक्षक बात टाल देते हैं जबकि अनुप्रयोग की चर्चा पहले होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर एक कुएं की गहराई या एक नदी की चौड़ाई बिना रस्सी/फीते के प्रयोग के कैसे ज्ञात करेंगे? इन प्रश्नों को बच्चों के बीच प्रस्तुत किया जाए फिर इन व्यवहारिक प्रश्नों के समाधान हेतु गणित के संबंधित विषयवस्तु की शुरूआत होनी चाहिये। गणित में प्रायोगिक कार्य अवश्य होना चाहिए और यह न केवल प्रयोगशाला तक सीमित हो बल्कि वास्तविक परिस्थितियों में भी इनका प्रयोग दोहराया जाए। उदाहरण के तौर पर ऊंचाई और दूरी से जुड़े सवालों के प्रायोगिक उदाहरण हल कराए जाएं। हमें याद रखना चाहिए कि माउंटेन एवरेस्ट की ऊंचाई ब्रिटिश इंडिया काल में भी अंग्रेज गणितज्ञ नहीं ज्ञात कर पा रहे थे। फिर यह कार्य भारतीय गणितज्ञ राधानाथ सिद्धक को दिया गया था जिन्होंने ऊंचाई और दूरी के सिद्धांत का प्रयोग करके ही माउंटेन एवरेस्ट की ऊंचाई ज्ञात की थी। लेकिन एवरेस्ट नामकरण अंग्रेज अधिकारी के नाम पर हो गया हालांकि राधानाथ सिद्धक के सुझाव पर ही यह नामकरण हुआ था। लेकिन आज के हमारे बच्चे गणित की किताबों के प्रश्न तो हल कर लेते हैं लेकिन यदि उन्हें किसी टावर की ऊंचाई ज्ञात करने के लिए कहा जाए तो वे शायद ही ज्ञात कर पाएं। प्लेटो की एकेडमी यूरोप की पहली एकेडमी मानी जाती है जिसके मुख्य द्वार पर लिखा होता था कि जिसे ज्यामिति नहीं आती उसे एकैडमी में प्रवेश नहीं मिलेगा अर्थात प्लेटो मानता था कि ज्यामिति विद्यार्थियों में चिंतन को विकसित करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है लेकिन आज के स्कूलों में ज्यामिति की अनदेखी की जा रही है। कम ही शिक्षक ज्यामिति प्रमेय से जुड़े प्रश्नों को हल करवाते हैं। बच्चों को केवल सूत्र रटवाकर प्रश्नों को हल करने के शार्ट ट्रिक बताए जा रहे हैं। सूत्रों के डेरिवेशन नहीं बताये जाते। कुछ कोचिंगों में बिना सिर पैर के ऐसे सूत्र बताये जाते हैं जो खतरनाक वायरस की तरह हैं ये विद्यार्थियों की मौलिक चिंतन क्षमता को ही चट कर जा रहे हैं। अतः हमें पुनर्विचार करना ही होगा।

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संपादकीय लेख : एक समान सिविल संहिता का राग फिर शुरू


अब जब धारा 370 और अयोध्या विवाद का मामला सुलझ गया है तो कुछ अति उत्साही तथाकथित राष्ट्रवादी लोग एक समान सिविल संहिता का राग अलापना शुरू कर दिए हैं। इन दिनों सोशल मीडिया में इस मुद्दे पर काफी चर्चा है। अतः यह लाजमी हो जाता है कि इस मुद्दे के सभी पहलुओं पर चर्चा हो, न कि एक पक्षीय।
एक समान सिविल संहिता की व्यवस्था मूल संविधान में ही किया जाना चाहिए था लेकिन पंडित नेहरू का मानना था कि अभी अभी साम्प्रदायिक आधार पर देश का विभाजन हुआ है और भारत के मुस्लिम भाई असहज महसूस कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में यदि उनके व्यक्तिगत मामलों में कानूनी हस्तक्षेप किया जाएगा तो वे भारत में अपने भविष्य को लेकर सशंकित हो जाएंगे। लेकिन इसके बावजूद भी एक समान सिविल संहिता के प्रावधान को संविधान के भाग-4 में नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में जगह दिया गया। इसमें यह कहा गया कि राज्य देश के समस्त भाग में रहने वाले नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता के निर्माण का प्रयास करेगा अर्थात आने वाली सरकारों का यह कर्तव्य होगा कि वे एक समान सिविल संहिता को लागू करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाएंगी। परन्तु नीति निदेशक प्रावधान न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, यह सरकार की इच्छा पर निर्भर है कि उसे लागू करें या नहीं करे इसीलिए आज तक यह मामला पेंडिंग है।

संविधान निर्माण काल में ही डॉक्टर अंबेडकर एक समान सिविल संहिता को लागू करने की दिशा में कानून बनाने के पक्षधर थे लेकिन नेहरू जी चाहते थे कि पहले हिंदू समाज से जुड़े नियमों कानूनों में संशोधन किया जाए। महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया जाए। एकल विवाह की व्यवस्था की जाए। महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार दिया जाए। बच्चे को गोद लेने के लिए जातीय बंधन समाप्त किए जाए। लेकिन डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का मानना था कि इतनी शीघ्रता से हजारों वर्ष पुरानी हिंदू परम्परा से छेड़छाड़ करना उचित नहीं और वैसे भी हम प्रत्यक्ष रूप से जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं। इस विषय में आम चुनाव के बाद विचार होना चाहिए। उन्होंने इतना तक कहा कि यदि सरकार ऐसा कोई विधेयक पास करके मेरे पास अनुमति के लिए भेजती है तो मै सदन के पास पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दूंगा। अतः ऐसा कोई बिल सदन में नहीं प्रस्तुत किया जा सका।

लेकिन संविधान लागू हो जाने के बाद प्रथम विधि मंत्री अम्बेडकर जी पुनः हिंदू कोड बिल तैयार किए। इस बिल को नेहरू जी का समर्थन प्राप्त था। लेकिन बाकी सदस्यों का प्रश्न था कि ऐसा सुधार केवल हिन्दू समाज में ही क्यों? यदि सुधार करना है तो सभी धर्मो के लिए एक समान सिविल संहिता का निर्माण किया जाए। क्या महिलाओं से जुड़ी हुई समस्याएं केवल हिन्दू समाज में ही हैं? इस पर नेहरू जी फिर वही राग दुहराए कि हमारा समाज एक समान सिविल संहिता के लिए तैयार नहीं है पहले हिंदू रिफॉर्म किया जाए जो शेष के लिए जमीन तैयार करने का काम करेगा अतः मुस्लिम समाज को इससे अलग रखा गया। इसीलिए इस विधेयक को हिन्दू कोड बिल का नाम दिया गया। हालांकि स्वामी करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में हिन्दू समुदाय का भी व्यापक विरोध देखने को मिला। करपात्री जी महराज की खुली चुनौती नेहरू जी और अम्बेडकर जी को थी कि यदि हिन्दू कोड बिल का कोई भी प्रावधान शास्त्र मम्मत सिद्ध कर दें तो मै इस बिल को स्वीकार कर लूंगा।

नेहरू जी इलाहाबाद के फूलपुर संसदीय क्षेत्र से प्रथम आम चुनाव लड़ रहे थे जहाँ उनका मुकाबला एक सन्यासी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी से था। ब्रह्मचारी जी केवल हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर ही मतों का ध्रुवीकरण करके चुनाव जीतना चाहते थे। मतदाताओं की हवा का रूख देखते हुए नेहरू जी बैकफुट पर हो गए और हिन्दू कोड बिल को वापस ले लिए और जनता में यह संदेश प्रसारित किए कि हिंदू कोड बिल में जन भावनाओं का सम्मान करते हुए संशोधन किया जाएगा उसके बाद ही सदन में प्रस्तुत किया जाएगा। नेहरू जी के इस वक्तव्य से अम्बेडकर ही इतने नाराज हो गए कि कैबिनेट से इस्तीफा दे दिए और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव में उतरे। शायद जनता अम्बेडकर जी से नाराज थी जिसके कारण अम्बेडकर जी चुनाव हार गए लेकिन नेहरू जी और उनकी पार्टी की जीत हुई।

अब हिंदू कोड बिल को सदन में पास कराना नेहरू जी की अकेले की जिम्मेदारी थी। अतः उन्होंने हिन्दू कोड बिल को कई हिस्सो में तोड़कर अलग अलग बिल के रूप में पास करवाकर कानून का रूप दिए। इसके बाद महिलाओं को संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। तलाक का अधिकार मिला। एकल विवाह की व्यवस्था की गई। किसी बच्चे को गोद लेने में जातीय बंधन समाप्त कर दिया गया। लेकिन हिंदू कोड बिल के व्यापक जन विरोध के अनुभव और उससे उपजे भय के कारण आगे की सरकारें एक समान सिविल संहिता को लागू करने की इच्छा शक्ति नहीं दिखा पा रही हैं। उनको पता है कि हिन्दू समाज से कहीं ज्यादा मुस्लिम समाज कंजरवेटिव हैं। वे अपने व्यक्तिगत कानूनों को धर्म सम्मत और अल्लाह की आवाज मानते हैं। यदि उनके व्यक्तिगत मामलों में बल पूर्वक हस्तक्षेप की कोशिश की गई तो परिणाम हिन्दू कोड बिल से भी ज्यादा भयानक हो सकते हैं। रही बात भाजपा कि तो अयोध्या फैसले के बाद कुछ लोग भारत में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि भाजपा हिंदुत्व और संघ का एजेंडा आगे बढ़ा रही है अतः यह उचित समय नहीं कहा जा सकता। नेहरू जी की चिंता आज भी हमारे शीर्ष नेताओं में विद्यमान है। हाँ धीरे धीरे आम सहमति से इस दिशा में आगे अवश्य बढ़ा जा सकता है।

संपादकीय लेख: भारत में गरीबी के कारण और निवारण के उपाय

भारत में गरीबी की जड़े बहुत गहरी हैं।इसकी जड़े वैदिक कालीन सामाजिक व्यवस्था में देखी जा सकती हैं।समाज का जो चौथा वर्ग था जिसे शूद्र कहा जाता था, को उत्पादन के साधनों पर स्वामित्त्व नहीं था।उनका कार्य था ऊपर के तीन वर्गों की सेवा करना।लेकिन इस सेवी वर्ग के भी दो भाग थे। प्रथम भाग जो ऊपर के तीन वर्गों के साथ प्रत्यक्ष जुड़े थे जैसे नाई धोबी लोहार कहार आदि । ये अपनी सेवा के बदले पर्याप्त पारितोषक प्राप्त कर लेते थे इसलिए इनका जीवन यापन किसी तरह से होता रहता था कोई विशेष समस्या नहीं थी।लेकिन दूसरा भाग जिसे अस्पृश्य समझा जाता था उन्हें इस प्रकार का कोई पारितोषक नहीं मिलता था क्योकि ये ऊपर के तीनों वर्गों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े नहीं थे।इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत दयनीय थी।उस समय की राजनितिक व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। राज्य की सम्पूर्ण भूमि पर राजा का अधिकार होता था।राजा किसानों के माध्यम से खेती करवाता था। उसका कुछ भाग राजा को मिलता था और शेष किसानों को।जब भारत में विदेशी आक्रमणकारी आए तो अपना साम्राज्य स्थापित कर भारत में ही बस गए। वे स्वयं को भारतीय समाज में विलीन करना चाहते थे। उनके सम्मुख यह समस्या थी कि वे किस वर्ग में अपने आपको शामिल करें।चूँकि भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुसार शासक क्षत्रिय वर्ग के लोग ही हो सकते थे। इसलिए विदेशी आक्रांताओं ने अपना क्षत्रियकरण करना चाहा।उनको पता चला कि भारत में यह कार्य ब्राह्मण ही करा सकते हैं अतः उन्होंने ब्राह्मणों से संपर्क किया।ब्राह्मणों ने कहा कि हम आपका ये कार्य तो कर देंगे बदले में हमे क्या लाभ प्राप्त होगा?उनको जबाब मिला कि आपको इच्छानुसार भूदान प्राप्त होगा।ब्राह्मण तैयार हो गए। बहुत ढेर सारे विदेशी आक्रांताओ का क्षत्रियकरण हुआ।बदले में ब्राह्मणों को पर्याप्त भूदान प्राप्त हुआ।ऐतिहासिक साक्ष्य ताम्र पत्रों में इसका उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम सातवाहनों ने इस प्रकार से भूदान किए। जिन ब्राह्मणों को भूदान मिला, वे कभी खेती तो किये नहीं थे, फिर भूमि का क्या करते,तो वे इस भूमि को छोटे छोटे बटाई किसानों को एक समझौते के तहत दे दिए अर्थात जमीन पर खेती किसान करते और उपज का एक निश्चित भाग भूस्वामी को मिलना था।यहीं से सामंतवादी व्यवस्था का उदय होता है।ये नवीन ब्राह्मण भूस्वामी वर्ग भूमिहार कहलाये।अब ये कर्मकांड से दूर हो गए । धीरे धीरे क्षत्रियों की तरह शान शौकत इनकी भी आदत बन गयी।इनके द्वारा शोषण की चर्चा भी बहुत होती है क्या पता कितना सही है।कुल मिलाकर समाज के अति निम्न वर्ग अभी भी उपेक्षित साधनहीन बने रहे।कमोबेस यही व्यवस्था मध्यकाल तक चलती रही। मध्यकालीन जितनी भी ऐतिहासिक इमारतें हैं वे सब गरीबों किसानों और मजदूरों के खून पसीने की प्रतीक हैं इसीलिए ये हमारे लिए महत्वपूर्ण भी है।

अंग्रेजो के आगमन के बाद शोषण का चक्र और तेज हो गया।लगान की दर बहुत ऊँची हो गयी । लगान वसूल करने का कार्य उन्हें ही सौंपा गया जो दबंग थे,ज्यादा से ज्यादा लगान वसूल कर अंग्रेजों को खुश करते थे।अब ये लोग जमीदार कहलाए।इनके शोषण की भी बहुत चर्चा होती है। खेत में आनाज हो या नहीं, लगान जमा करना ही होता था।इसके विरोध में बड़े बड़े आंदोलन भी हुए।यानी इस समय भूमिहीन तो गरीब थे ही,खेतिहर किसान भी गरीब हो गए। हस्तशिल्पी भी बेगार हो गए क्योकि ब्रिटेन के औद्योगीकरण से मीलों से बने उत्पाद की तुलना में भारतीय उत्पाद प्रतियोगिता नहीं कर पा रहे थे।अतः भारत का हस्तशिल्प चौपट हो गया अर्थात समाज का एक बड़ा तपका गरीबी एवं भुखमरी की चपेट में था। लाखों की जनसंख्या अकाल के भेट चढ़ जाती थी।आजादी के बाद भारत में सुधार के लिए विभिन्न प्रयास किए गए।सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से कमजोर वर्ग को सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिया गया। जमीदारी उन्मूलन किया गया, विनोबा भावे जी के द्वारा भूदान आंदोलन चलाया गया तथा प्राप्त भूमि को भूमिहीनों में वितरित किया गया लेकिन इसके बावजूद भी भूमिहीन वर्ग विशेष लाभान्वित नहीं हो पाए। पंचवर्षीय योजनाएं लागू की गई।गरीबी उन्मूलन, बेरोजगारी उन्मूलन कार्यक्रम चलाए गए। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था की गई लेकिन अभी भी भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग लाभान्वित नहीं हो पाया है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट ' स्टेट आफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन ' में यह बताया गया है कि दुनियां के 70 करोड़ ( 5 वर्ष से कम आयु के) बच्चों में से एक तिहाई कुपोषण के शिकार हैं जबकि भारत में यह अनुपात आधा है।इसी प्रकार केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी प्रथम राष्ट्रीय पोषण सर्वे में 10-19 वर्ष आयु के 25% बच्चों को कुपोषित बताया गया है।हंगर इंडेक्स की 117 देशों की सूची में भारत का स्थान 102 वां है।इस मामले में हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका हमसे अच्छी स्थिति में हैं। ग़रीबी रेखा का निर्धारण मानक अति निम्न रखे जाने के बावजूद यू एन रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभी भी लगभग 27.9% लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। अब यह सवाल उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार या समाज या फिर परिवार? मेरे समझ से जिम्मेदार कमाधिक तीनों हैं।

भारत के नोबेल पुरस्कार विजेता, बालश्रम के प्रति संवेदना व्यक्त करने वाले पहले विचारक कैलाश सत्यार्थी का मानना है कि "यदि विकास योजनाएं वयस्कों को ध्यान में रखकर बनाई जाए तो समझिए नजर आगामी चुनाव पर है और यदि योजनाएं बच्चों को ध्यान में रखकर बनाई जाए तो समझिए कि अगली पीढ़ी तक के विकास पर नजर है। "
मतलब साफ है सरकारी योजनाएं सदैव इस बात को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं कि अगले चुनाव में उन्हें अधिक से अधिक फायदा कैसे मिले। क्यों न सरकार को दोषी ठहराया जाए? यहां बात कुपोषण की हो रही है, जानकारी के लिए बता दूं कि भारत में एक लाख करोड़ रुपए का अनाज प्रति वर्ष बर्बाद हो जाता है लेकिन पात्र व्यक्ति को नहीं मिल पाता। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत कम मूल्य पर गेहूं चावल के वितरण की व्यवस्था सरकार द्वारा की गई है लेकिन वह भी कालाबाजारी और भ्रष्टाचार के भेट चढ़ गयी है। ऐसे लोगों के बीपीएल और अंत्योदय कार्ड बन गए हैं जिनको इस अनाज की आवश्यकता ही नहीं है अर्थात बाजार कीमत पर अनाज खरीदने में सक्षम हैं या फिर वे स्वयं उत्पादक और विक्रेता हैं। ऐसे लोग पीडीएस से सस्ते दाम पर अनाज खरीद कर तुरंत बाजार कीमत पर बेच कर मुनाफा कमाते हैं। जो पात्र हैं बेचारे वो 100-200 रुपए की व्यवस्था करने में दो चार दिन लेट हुए नहीं कि पीडीएस से अनाज खत्म हो जाने की सूचना मिलती है। अंत में मजबूूर होकर बाजार कीमत पर उधार अनाज क्रय करते हैं जिससे उत्तरोत्तर कर्ज के बोझ तले दबते चले जाते हैं और गरीबी के इस कुचक्र से तंग आकर अंत में आत्म हत्या कर लेते हैं। बच्चे बेसहारा मजबूर होकर भिक्षावृत्ति, बाल मजदूरी तथा शोषण का शिकार हो जाते हैं।

कुछ लोग गरीबी और भुखमरी के लिए समाज को जिम्मेदार समझते हैं क्योंकि भाग्य की थ्योरी हमारे समाज में कुछ ज्यादा ही प्रचलन में है। लोग कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा और समय से पहले किसी को कुछ भी नहीं मिलता। ऐसी ही बातें सोचकर कुछ लोग हाथ पे हाथ रख कर समय पास करते जाते हैं और अपनी गरीबी को अपना भाग्य समझ लेते हैं। अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए कुछ सोचते ही नहीं और कुछ सोचते हैं तो करते नहीं। एक फिल्म मुझे याद आती है मन जिसमें हीरो आवारगी की जिंदगी जीता है लेकिन जब उसे हीरोइन से प्रेम हो जाता है तो वो घर बसाने की सोचता है लेकिन हीरोइन बोलती है कि तुम्हारे पास तो घर ही नहीं है तो हमें रखोगे कहां? तब हीरो एक वर्ष का समय मांगता है कि एक वर्ष में मै वो सब कुछ आपको दूंगा जो आपने अपने जीवनसाथी से अपेक्षा कर रखी है और हीरो एक वर्ष में अपना वादा पूरा भी करता है। उस फिल्म में हीरो रात दिन हमेशा अपने काम में लगा रहता था। एक व्यक्ति ने उससे पूछा, सोते हो कब? तब हीरो उत्तर दिया इतने दिनों तक सो ही तो रहा था अब जाके जागा हूँ। आप सोच रहे होंगे ऐसा केवल फिल्मों में होता है लेकिन हकीकत में भी ऐसे उदाहरण हैं। एक वर्ष में सब कुछ तो नहीं लेकिन अपने परिवार के लिए उचित भरण-पोषण की व्यवस्था अवश्य ही की जा सकती है। लेकिन लोग इतना भी नहीं करते हैं, मन के हीरो की तरह सोते ही रहते हैं।

भारत में कुपोषण व गरीबी का एक और बड़ा कारण है हमारे रीति रिवाज परंपराएं। लोग शादी-विवाह, कर्मकांड व त्योहारों में अनावश्यक पैसे की बर्बादी करते हैं। जिनके पास पैसा है वो खर्च करे तो उसे उचित मान भी सकते हैं लेकिन लोग कर्ज लेकर खर्च करने को मजबूर होते हैं अपनी प्रतिष्ठा और सामाजिक दबाव के कारण। कहते हैं अमीर अपनी अमीरी को दिखाने के लिए पैसे बर्बाद करता है। इससे गरीब लोगों पर प्रेसर क्रिएट होता है और वो अपनी गरीबी को छिपाने व अपने झूठे स्वाभिमान की रक्षा के लिए मजबूर होकर खर्च करता है जिससे कर्ज के बोझ व गरीबी के कुचक्र में फंसता चला जाता है।
भारत में गरीबी का एक और कारण है बाजार की ब्रांडिंग व्यवस्था। बड़े पूंजीपति लोग पैसे के बल पर अपने उत्पाद की ( चाहे वस्तु हो या सेवा) इस प्रकार से ब्रांडिंग कराते हैं कि उपभोक्ता उनके उत्पादों को खरीदने में गर्व का अनुभव करते हैं। इससे छोटे उत्पादकों के उत्पाद बाजार में प्रतियोगिता नहीं कर पाते जिससे नए लोग उत्पादन के क्षेत्र में आगे आने से हतोत्साहित होते हैं। पापड़ चटनी अचार नमकीन आदि का उत्पादन कोई भी बेरोजगार व्यक्ति छोटी पूंजी मै शुरू कर सकता है लेकिन उसके उत्पाद के बिकने की गारंटी नहीं है इसलिए लोग आगे आने की हिम्मत नहीं कर पाते। हमारी मानसिकता ऐसी है कि सेम प्रोडक्ट ऊंचे दामों में बड़े बड़े मॉल से खरीदना पसंद करते हैं लेकिन छोटे दुकानदारों से कम दाम में भी खरीदने नहीं जाते और जाते भी हैं तो इतनी बार्गेनिंग करते हैं कि दुकानदारों को पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाता। ऐसे दुकानदारों की दो वक्त की रोटी भी चलनी मुश्किल होती है। अतः छोटे लोग दुकान भी लगाने की हिम्मत नहीं कर पाते कि क्या पता दुकान चलेगी या नहीं? इस प्रकार हमारी अर्थव्यवस्था का स्वरूप ही ऐसा है कि पूंजी का प्रवाह नीचे से उपर की ओर है।
भारत की गरीबी का एक प्रमुख कारण अशिक्षा भी है।समाज के निम्न वर्ग के लोग अभी भी शायद शिक्षा के महत्व को समझ नहीं पाए हैं।इस दिशा में इतने सरकारी प्रयास हो रहे हैं लेकिन सब बेकार साबित हो रहे हैं।इसके लिए उन्हें पढ़ाने से पहले पढ़ने के लिए तैयार करना होगा।उन्हें कहानियों से अभिप्रेरित करना होगा।पढ़ लिख कर आगे बढ़ने और पैसा कमाने की भूख पैदा करना होगा।

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संपादकीय लेख : बच्चों के प्रति हमारे कर्तव्य

मेरा यह लेख दैनिक समाचार पत्रों में छप चुका है।

एक अच्छे विशाल वृक्ष के तैयार होने में किन-किन चीजों की आवश्यकता होती है?? क्या आपने इस बात पर कभी विचार किया है यदि हाँ तो बताइए??
विशाल वृक्ष बनने के लिए अच्छे प्रकार की पोषक तत्वों से युक्त मिट्टी की आवश्यकता होती है। मिट्टी में डालने के लिए उत्कृष्ट बीज की आवश्यकता होती है। नमी की आवश्यकता होती है। सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है।
तेज हवाओं के झोंकों से बचने के लिए सहारे की आवश्यकता होती है।
इसके अलावा कोई जानवर छोटी अवस्था में ही न चर ले, इसलिए सुरक्षा की भी आवश्यकता होती है। तब जाकर एक बीज पौधा और पौधा विशाल वृक्ष का रूप लेता है।

कुछ ऐसा ही मनुष्य के जीवन में भी होता है। लोग ऐसा सोचते हैं कि मनुष्य के अंदर जो गुण होते हैं वह अनुवांशिक होते हैं, यह बात कुछ हद तक ठीक है लेकिन सर्वथा सत्य नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से एक अच्छे प्रजाति का बीज एक विशाल वृक्ष के तैयार होने की गारंटी नहीं देता है उसी प्रकार से अच्छे सद्चरित्र बुद्धिमान स्वस्थ मजबूत साहसी व्यक्ति की संतान आवश्यक नहीं है कि उक्त गुणों से युक्त हो। इसके लिए अन्य कारक भी जिम्मेदार हैं. जैसे -वह जिस परिवेश में पल बढ़ रहा है वह परिवेश कैसा है। जिस प्रकार पहाड़ी ककरीली पथरीली मिट्टी में छोटे वृक्ष और कटीली झाड़ियां उगती हैं उसी प्रकार गंदे परिवेश में अपराधी मानसिकता और आवारगी का जीवन जीने वाले मनुष्यों का विकास हो सकता है, स्वस्थ मानसिकता का नहीं।
पोषण की स्थिति कैसी है क्योंकि कुपोषण की दशा में बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास बाधित होगा।इसी प्रकार उसे किस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है। पढ़ने लिखने की सुविधाएं कितनी पर्याप्त मिली हुई हैं। जिस प्रकार से बिना प्रकाश के पौधे पीले पड़ जाते हैं और अंत में सूख जाते हैं उसी प्रकार बिना शिक्षा के समाज में सरवाइव करना संभव नहीं है।
बच्चा शारीरिक रूप से कितना एक्सरसाइज कर रहा है। बिना एक्सरसाइज के शरीर कमजोर और आलसी हो जाता है।अंत में उसकी सुरक्षा के क्या इन्तिज़ाम हैं अर्थात शांति व्यवस्था के सरकारी उपाय कितने पुख्ता हैं। इन सब वाह्य कारकों से व्यक्ति का व्यक्तित्व या जीवन निर्धारित होता है। यदि इन कारकों में से कोई भी कारक अपर्याप्त या सहायक की भूमिका में नहीं है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति का व्यक्तित्व या जीवन प्रभावित होगा। जिसके लिए जिम्मेदार परिवार, समाज और राष्ट्र तीनों सं युक्त रूप से हैं। अतः हम सभी को अपने अपने स्तर पर अपनी भूमिका निभानी चाहिए। यह हमारे बच्चों के भविष्य का सवाल है, अनदेखा नहीं किया जा सकता।

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