Skip to main content

9th History Important Questions

  📘 History Question Bank India and the Contemporary World – Part I Chapter – 1 : The French Revolution 1. Multiple Choice Questions (01 Mark each) i. Louis 16 was the king of which dynasty? (a) Romanov (b) Windsor (c) Bourbon (d) Hapsburg ii. When did the French Revolution begin? (a) 1780 AD (b) 1890 AD (c) 1789 AD (d) 1960 AD iii. What was the tithe in France? (a) Church tax (b) Direct tax (c) Indirect tax (d) Customs tax iv. When did women in France get the right to vote? (a) 1946 AD (b) 1935 AD (c) 1950 AD (d) 1952 AD v. Who was the leader of Jacobin Club? (a) Locke (b) Thomas Paine (c) Robespierre (d) Rousseau vi. Which are the French national colors? (a) Blue-Green-Red (b) Yellow-Green-Red (c) White-Blue-Yellow (d) Blue-White-Red vii. Why did Louis 16 call a meeting of the Estates General on May 5, 1789? (a) To impose new taxes (b) To remove taxes (c) To punish the nobles (d) To reward the philosophers viii. Which principle is not of the French Revolu...

11th राजनीति विज्ञान : न्यायपालिका

स्वतंत्र न्यायपालिका क्यों आवश्यक है?

1. विवादों का निपटान: किसी भी समाज में विवाद स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। ये विवाद व्यक्ति, समूह, या व्यक्ति और सरकार के बीच हो सकते हैं। इनका निपटान एक स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा किया जाना चाहिए ताकि सभी नागरिकों को निष्पक्ष न्याय मिल सके।

2. कानून का शासन: कानून का शासन यह सुनिश्चित करता है कि सभी लोग, चाहे वे अमीर हों या गरीब, महिला हों या पुरुष, ऊंची जाति के हों या पिछड़ी जाति के, समान कानून के अधीन हों। न्यायपालिका कानून की सर्वोच्चता बनाए रखने और लोकतंत्र को समूह या व्यक्ति के अधिनायकवाद में बदलने से रोकने का कार्य करती है।

3. अधिकारों की सुरक्षा: न्यायपालिका व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है और कानून के आधार पर विवादों का समाधान करती है।

4. राजनीतिक दबाव से स्वतंत्रता: न्यायपालिका का स्वतंत्र होना यह सुनिश्चित करता है कि वह किसी राजनीतिक दबाव या पक्षपात के बिना निष्पक्ष निर्णय ले सके।

स्वतंत्र न्यायपालिका का अर्थ और इसे सुनिश्चित करने के उपाय

स्वतंत्र न्यायपालिका का अर्थ:

स्वतंत्र न्यायपालिका का मतलब है कि न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका और विधायिका का हस्तक्षेप न हो, और न्यायाधीश बिना किसी डर या पक्षपात के न्याय कर सकें।

स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के उपाय:

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति: भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए यह कार्य राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों के समूह (कोलेजियम) को सौंपा गया है।

2. कार्यकाल की सुरक्षा: न्यायाधीशों को निश्चित कार्यकाल मिलता है और उन्हें केवल विशेष परिस्थितियों में हटाया जा सकता है। हटाने की प्रक्रिया बहुत कठिन और विधायी सहमति पर आधारित होती है।

3. वेतन और सुविधाएँ: न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते को कार्यपालिका या विधायिका के नियंत्रण से बाहर रखा गया है।

4. न्यायपालिका की आलोचना पर रोक: न्यायपालिका को अवमानना के मामलों में दंड देने का अधिकार दिया गया है ताकि उसके निर्णयों की अनुचित आलोचना न हो।

न्यायपालिका की संरचना और क्षेत्राधिकार

भारत में एक एकीकृत न्यायिक प्रणाली है। इसका ढांचा पिरामिड के रूप में है:

1. सर्वोच्च न्यायालय: सबसे ऊपर स्थित है और इसका कार्यक्षेत्र मूल या प्रारंभिक, अपीलीय और परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार होता है।

मूल क्षेत्राधिकार: संघ और राज्यों के बीच विवाद विवादों का निपटारा करना।

रिट क्षेत्राधिकार: मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर सीधे न्याय दिलाना (Art-32)।

अपीलीय क्षेत्राधिकार: उच्च न्यायालयों के निर्णयों के खिलाफ  दीवानी और फौजदारी मामलों में अपील सुनना।

सलाहकारी क्षेत्राधिकार: संविधान या जनहित के मामलों में राष्ट्रपति को सलाह देना(Art-143)।

2. उच्च न्यायालय: राज्यों के स्तर पर न्याय प्रदान करता है और निचले न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनता है।

3. जिला और अधीनस्थ न्यायालय: स्थानीय व निचले स्तर पर न्याय देने के लिए कार्य करते हैं।

निष्कर्ष:

स्वतंत्र और सक्रिय न्यायपालिका कानून का शासन स्थापित करने, नागरिक अधिकारों की रक्षा करने, और लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने का आधार है। इसके बिना न्याय और लोकतंत्र की कल्पना संभव नहीं है।

न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका (PIL) का विश्लेषण

जनहित याचिका (PIL) या सामाजिक कार्रवाई याचिका (SAL):

PIL का अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति या संगठन, भले ही वह स्वयं पीड़ित न हो, जनता के हित में न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। यह परंपरागत प्रक्रिया से अलग है, जिसमें केवल वही व्यक्ति न्यायालय जा सकता था जिसकी व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो।

उत्पत्ति और विकास:

1979 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार ऐसा मामला सुना जिसमें याचिका पीड़ित व्यक्ति द्वारा नहीं, बल्कि किसी और ने उनके पक्ष में दायर की थी।

इसके बाद जेलों में कैदियों के अधिकारों से जुड़े मामले सामने आए, जिसने गरीबों, वंचितों और पर्यावरण की रक्षा के लिए व्यापक स्तर पर PIL दायर करने का रास्ता खोल दिया।

अखबारों की खबरों और डाक द्वारा भेजी गई शिकायतों के आधार पर भी न्यायालय मामलों पर विचार कर सकता है।

न्यायिक सक्रियता का प्रभाव:

1. लोकतांत्रिक न्याय प्रणाली का विस्तार:

PIL ने केवल व्यक्तियों को ही नहीं, बल्कि सामाजिक समूहों और संगठनों को भी न्यायालय तक पहुंचने का अधिकार दिया है।

2. न्यायिक अधिकारों का विस्तार:

साफ हवा, स्वच्छ पानी, और सम्मानजनक जीवन को न्यायालय ने पूरे समाज के अधिकार के रूप में मान्यता दी है।

3. कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना:

न्यायालय ने चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए उम्मीदवारों से उनके संपत्ति, आय, और शैक्षणिक योग्यता की जानकारी देने को कहा।

नकारात्मक पक्ष:

1. न्यायालयों पर बोझ:

PIL की बढ़ती संख्या ने न्यायालयों पर भारी बोझ डाला है।

2. संविधानिक संतुलन में बाधा:

न्यायालय ने कई बार कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप किया है। उदाहरण के लिए, प्रदूषण नियंत्रण, भ्रष्टाचार की जांच, और चुनाव सुधार।

3. लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर दबाव:

न्यायिक सक्रियता ने सरकार के तीनों अंगों—कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका—के बीच संतुलन को नाजुक बना दिया है।

निष्कर्ष:

न्यायिक सक्रियता और PIL ने भारतीय न्याय प्रणाली को अधिक जनहितैषी और समावेशी बनाया है। हालांकि, यह आवश्यक है कि न्यायपालिका अपने दायरे में रहकर कार्य करे ताकि लोकतंत्र का संतुलन और प्रशासनिक प्रक्रियाओं की प्रभावशीलता बनी रहे।

न्यायपालिका और अधिकार: विश्लेषण

भारतीय संविधान में न्यायपालिका को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या का जिम्मा सौंपा गया है। इसके माध्यम से न्यायपालिका ने लोकतंत्र को मजबूत करने और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

न्यायपालिका का अधिकारों की रक्षा में योगदान

1. मौलिक अधिकारों की बहाली:

रिट जारी करना (अनुच्छेद 32 और 226): सर्वोच्च और उच्च न्यायालय, रिट्स (जैसे, हैबियस कॉर्पस, मैंडमस, प्रोहिबिशन, आदि) जारी कर नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं।

असंवैधानिक कानूनों को खारिज करना (अनुच्छेद 13): यदि कोई कानून संविधान के विरुद्ध पाया जाता है, तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर लागू होने से रोक सकती है।

2. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review):

न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह संसद या राज्य विधायिकाओं द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करे।

न्यायिक समीक्षा के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि संविधान के बुनियादी ढांचे और नागरिक अधिकारों की रक्षा हो सके।

3. लोकहित याचिका (PIL):

न्यायिक सक्रियता के माध्यम से न्यायपालिका ने लोकहित याचिका की अवधारणा को बढ़ावा दिया। इसके जरिए वंचित और कमजोर वर्ग के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हुई।

न्यायपालिका और संसद के बीच संबंध

भारतीय संविधान में सत्ता के विभिन्न अंगों के बीच शक्ति संतुलन की व्यवस्था है। फिर भी न्यायपालिका और विधायिका के बीच विवाद समय-समय पर उभरते रहे हैं।

1. संसद बनाम न्यायपालिका:

संविधान संशोधन और मौलिक अधिकार: संसद ने भूमि सुधार और संपत्ति अधिकारों को सीमित करने के लिए संविधान में संशोधन किए, लेकिन न्यायपालिका ने इसे मौलिक अधिकारों के विरुद्ध माना।

केशवानंद भारती मामला (1973):

न्यायपालिका ने "संविधान की मूल संरचना" का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन इसकी मूल संरचना को नहीं बदल सकती।

इस फैसले ने संसद और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन को परिभाषित किया।

2. न्यायिक सक्रियता और विधायिका:

न्यायपालिका ने कई बार विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप किया, जैसे भ्रष्टाचार के मामलों में सीबीआई को निर्देश देना, पर्यावरण संरक्षण के लिए आदेश देना, आदि।

संसद इसे "विधायी संप्रभुता" के उल्लंघन के रूप में देखती है।

संघर्ष के मुख्य मुद्दे

1. संपत्ति का अधिकार:

संसद और न्यायपालिका के बीच संपत्ति अधिकार को लेकर विवाद था। 44th संशोधन 1979 द्वारा इसे मौलिक अधिकारों की सूची से हटा कर विधिक अधिकार बना दिया गया गया।

2. विधायी विशेषाधिकार बनाम न्यायिक संरक्षण:

क्या न्यायपालिका विधायिका के विशेषाधिकारों में हस्तक्षेप कर सकती है? यह अभी भी विवाद का विषय है।

3. जजों की स्वतंत्रता बनाम संसदीय चर्चा:

संविधान के अनुसार, न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती। फिर भी कई बार न्यायपालिका की आलोचना विधायिका द्वारा की जाती है।

विश्लेषण और निष्कर्ष

भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्ति संतुलन बेहद संवेदनशील है।

1. सत्ता का सीमित पृथक्करण: भारतीय संविधान में यह सुनिश्चित किया गया है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपनी-अपनी सीमाओं में कार्य करें।

2. न्यायिक सक्रियता का महत्व: यह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और सरकार को जवाबदेह बनाने में मदद करती है।

3. संघर्ष का समाधान:

न्यायपालिका और विधायिका को संविधान के मूल ढांचे का सम्मान करते हुए परस्पर सहयोग करना चाहिए।

लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक अंग अपनी सीमा का पालन करे और दूसरे अंग की स्वायत्तता का सम्मान करे।

न्यायपालिका और संसद के बीच यह संबंध भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य और संविधान की सफलता के लिए आवश्यक हैं। शक्ति के इस संतुलन को बनाए रखना लोकतंत्र की मजबूती और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


Comments

Advertisement

POPULAR POSTS