यह अध्याय वैश्विक राजनीति में पर्यावरणीय और संसाधन संबंधी मुद्दों के बढ़ते महत्व की जांच करता है। इसमें 1960 के दशक से बढ़ते पर्यावरणवाद की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण पर्यावरणीय आंदोलनों का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसके साथ ही, साझा संसाधनों (common property resources) और वैश्विक कॉमन्स (global commons) की अवधारणाओं पर चर्चा की गई है। भारत के पर्यावरणीय बहसों में लिए गए हालिया रुख और संसाधन प्रतिस्पर्धा की भू-राजनीति पर भी प्रकाश डाला गया है। इस अध्याय का समापन समकालीन वैश्विक राजनीति में हाशिए पर पड़े स्वदेशी समुदायों की चिंताओं पर ध्यान देने के साथ किया गया है।
1. पर्यावरणीय मुद्दे और वैश्विक राजनीति
पारंपरिक रूप से, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति युद्ध, संधियों, राज्य शक्ति के उत्थान-पतन और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका तक सीमित रही है। लेकिन समय के साथ पर्यावरण और संसाधन-संबंधी विषय भी वैश्विक राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं। इसके प्रमुख कारण हैं:
1. वैश्विक संसाधनों की कमी – खेती योग्य भूमि में वृद्धि रुक गई है, चरागाहों और मत्स्य संसाधनों का अत्यधिक दोहन हो चुका है, और जल संसाधन भी तेजी से घट रहे हैं।
2. प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता – वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि, और प्रदूषण जैसी समस्याएं गंभीर रूप से उभर कर आई हैं।
3. अंतर्राष्ट्रीय समन्वय की आवश्यकता – कोई भी एकल सरकार इन समस्याओं का समाधान अकेले नहीं कर सकती। इसलिए, ये मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
2. पर्यावरणीय राजनीति की उत्पत्ति और विकास
1960 के दशक से ही आर्थिक विकास के पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर चिंता बढ़ी। 1972 में Club of Rome द्वारा प्रकाशित Limits to Growth रिपोर्ट ने पृथ्वी के संसाधनों के संभावित क्षरण की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद, संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इस विषय पर गंभीर विचार-विमर्श शुरू किया।
3. 1992 का रियो पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit)
1992 में ब्राज़ील के रियो डी जेनेरियो में United Nations Conference on Environment and Development (UNCED) आयोजित हुआ, जिसे पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit) कहा गया। इसमें 170 देशों, हजारों गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भाग लिया।
1987 में Brundtland Report (Our Common Future) ने चेतावनी दी कि पारंपरिक आर्थिक विकास मॉडल लंबे समय तक टिकाऊ नहीं रहेगा, विशेष रूप से जब विकासशील देशों को औद्योगीकरण की आवश्यकता है।
रियो सम्मेलन में यह स्पष्ट हुआ कि वैश्विक उत्तर (Global North) और वैश्विक दक्षिण (Global South) की पर्यावरणीय चिंताएँ अलग थीं।
उत्तर के विकसित देश ओजोन परत की कमी और जलवायु परिवर्तन से चिंतित थे।
दक्षिण के विकासशील देश आर्थिक विकास और पर्यावरणीय प्रबंधन के बीच संतुलन पर ध्यान देना चाहते थे।
सम्मेलन से ‘Agenda 21’ जैसी नीतियाँ बनीं, जो सतत विकास को प्रोत्साहित करने के लिए बनाई गई थी। हालांकि, आलोचकों ने कहा कि यह आर्थिक विकास को प्राथमिकता देता है, न कि पर्यावरणीय संरक्षण को।
4. पर्यावरणीय राजनीति के प्रमुख विवाद
1. उत्तर-दक्षिण विभाजन – विकसित देश प्रदूषण को नियंत्रित करने पर ज़ोर देते हैं, जबकि विकासशील देश इसे अपनी औद्योगिक वृद्धि के लिए बाधा मानते हैं।
2. उत्तरदायित्व का सवाल – विकसित देशों ने ऐतिहासिक रूप से अधिक प्रदूषण किया है, लेकिन अब वे विकासशील देशों पर भी समान प्रतिबंध लागू करने का दबाव डालते हैं।
3. जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन – ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने की जरूरत है, लेकिन विकासशील देशों को लगता है कि यह उनकी औद्योगिक प्रगति को बाधित करेगा।
5. भारत का पर्यावरणीय दृष्टिकोण
भारत ने हमेशा सतत विकास और गरीबों की भलाई को प्राथमिकता दी है। भारत की पर्यावरणीय नीति के कुछ मुख्य बिंदु:
पर्यावरण संरक्षण और विकास में संतुलन – भारत मानता है कि पर्यावरणीय नीतियों को आर्थिक विकास को बाधित नहीं करना चाहिए।
संयुक्त लेकिन भिन्न उत्तरदायित्व (Common but Differentiated Responsibilities - CBDR) – भारत का तर्क है कि विकसित देशों को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और विकासशील देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता देनी चाहिए।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन वार्ताएँ – भारत ने पेरिस समझौते (Paris Agreement, 2015) में भाग लिया और नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई।
6. संसाधन प्रतिस्पर्धा और भू-राजनीति
पर्यावरणीय संसाधनों की प्रतिस्पर्धा वैश्विक राजनीति को प्रभावित करती है:
जल संसाधनों की राजनीति – कई देशों के बीच नदियों को लेकर संघर्ष (जैसे भारत-पाकिस्तान का सिंधु जल विवाद)।
ऊर्जा संसाधनों पर संघर्ष – तेल, गैस और खनिजों को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा।
भूमि और कृषि – जैव विविधता और कृषि भूमि के संरक्षण से जुड़े विवाद।
7. स्वदेशी समुदायों की आवाज़
पर्यावरणीय राजनीति में स्वदेशी समुदायों की उपेक्षा एक बड़ा मुद्दा है। कई बार जंगलों, जल स्रोतों और पारंपरिक भूमि के दोहन के कारण ये समुदाय विस्थापित हो जाते हैं। पर्यावरणीय निर्णयों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
इस अध्याय से यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरणीय और संसाधन-संबंधी मुद्दे केवल वैज्ञानिक या भौगोलिक नहीं हैं, बल्कि वे गहराई से राजनीतिक भी हैं। ये न केवल राष्ट्रीय स्तर पर नीति-निर्माण को प्रभावित करते हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी नया आकार देते हैं। सतत विकास के सिद्धांत को अपनाते हुए पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान खोजना ही भविष्य की कुंजी है।
वैश्विक कॉमन्स (Global Commons) और उनकी सुरक्षा
वैश्विक कॉमन्स (Global Commons) वे प्राकृतिक संसाधन और क्षेत्र हैं, जो किसी एक देश के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते, बल्कि संपूर्ण मानवता के साझा संसाधन माने जाते हैं। इनमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्र तल और बाह्य अंतरिक्ष शामिल हैं। इन संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की मांग करता है, लेकिन इस प्रक्रिया में कई राजनीतिक और आर्थिक जटिलताएँ जुड़ी हुई हैं।
1. वैश्विक कॉमन्स का महत्व
वैश्विक कॉमन्स उन संसाधनों को संदर्भित करता है, जिनका उपयोग सभी कर सकते हैं, लेकिन उनके अति-दोहन (over-exploitation) और पर्यावरणीय क्षति से पूरी मानवता को खतरा हो सकता है।
वायुमंडल (Atmosphere) – जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण का प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग, मौसम परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ रही हैं।
अंटार्कटिका (Antarctica) – यह पृथ्वी का सबसे संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र है। यहाँ किसी भी प्रकार के औद्योगिक दोहन को नियंत्रित करने के लिए 1959 की अंटार्कटिक संधि (Antarctic Treaty) लागू की गई।
समुद्र तल (Ocean Floor) – समुद्र के गहरे क्षेत्रों में बहुमूल्य खनिज संसाधन हैं। इन संसाधनों के दोहन को नियंत्रित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UNCLOS - United Nations Convention on the Law of the Sea) बनाई गई।
बाह्य अंतरिक्ष (Outer Space) – अंतरिक्ष संसाधनों की खोज और उपयोग पर वैश्विक सहमति आवश्यक है, ताकि कोई भी देश इसका अनुचित लाभ न उठा सके।
2. वैश्विक कॉमन्स की सुरक्षा में चुनौतियाँ
(i) अंतरराष्ट्रीय सहयोग की कठिनाइयाँ
वैश्विक कॉमन्स के संरक्षण के लिए सभी देशों की भागीदारी आवश्यक है, लेकिन आर्थिक और राजनीतिक हितों के कारण एक समान सहमति बनाना मुश्किल होता है।
उदाहरण के लिए, 1987 मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) के उपयोग को प्रतिबंधित किया गया, जिससे ओजोन परत में सुधार हुआ। लेकिन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल (1997) और पेरिस समझौता (2015) पर सहमति बनाना कठिन रहा।
(ii) उत्तर-दक्षिण असमानता (North-South Divide)
विकसित देश (Global North) पहले से ही औद्योगीकरण कर चुके हैं और उनके पास उन्नत तकनीक है। वे विकासशील देशों (Global South) पर पर्यावरणीय नियमों को लागू करने का दबाव डालते हैं, जबकि स्वयं ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक प्रदूषण कर चुके हैं।
बाह्य अंतरिक्ष और समुद्र तल जैसे क्षेत्रों में संसाधनों के उपयोग पर तकनीकी रूप से समृद्ध देशों का प्रभुत्व है, जिससे गरीब देशों को समान अवसर नहीं मिल पाते।
(iii) वैज्ञानिक प्रमाण और समय-सीमा की जटिलता
पर्यावरणीय समस्याएँ दीर्घकालिक होती हैं, और इनके प्रभावों के वैज्ञानिक प्रमाण कभी-कभी अस्पष्ट या अपूर्ण हो सकते हैं।
1980 के दशक में जब अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन छिद्र (Ozone Hole) की खोज हुई, तब वैज्ञानिक प्रमाणों ने सरकारों को त्वरित कार्यवाही करने के लिए प्रेरित किया। लेकिन जलवायु परिवर्तन जैसे अन्य मुद्दों पर तत्काल सहमति बनाना कठिन साबित हुआ है।
(iv) संसाधनों का असमान दोहन और भविष्य की पीढ़ियाँ
बाह्य अंतरिक्ष और समुद्री संसाधनों का दोहन मुख्य रूप से आर्थिक और औद्योगिक लाभ से प्रेरित है। विकसित देश नई तकनीकों के माध्यम से इन संसाधनों का अधिक दोहन कर रहे हैं, जिससे भविष्य की पीढ़ियों को समान अवसर नहीं मिल पाएंगे।
यदि इन संसाधनों का उचित प्रबंधन नहीं किया गया, तो इससे पर्यावरणीय असंतुलन बढ़ सकता है।
3. प्रमुख वैश्विक संधियाँ और पहल
4. समाधान और भविष्य की राह
(i) सतत विकास और न्यायसंगत उपयोग
संसाधनों का दोहन इस प्रकार होना चाहिए कि वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित रहें।
विकसित देशों को पर्यावरणीय तकनीकों और वित्तीय संसाधनों को साझा करना चाहिए ताकि विकासशील देश भी सतत विकास कर सकें।
(ii) सख्त अंतरराष्ट्रीय कानून और प्रवर्तन
वैश्विक कॉमन्स के संरक्षण के लिए मौजूदा समझौतों को सख्ती से लागू करना आवश्यक है।
अंतरराष्ट्रीय निकायों को इस क्षेत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी भूमिका निभानी चाहिए।
(iii) उत्तर-दक्षिण सहयोग और वित्तीय सहायता
विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए विकासशील देशों को तकनीकी और आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए।
(iv) वैज्ञानिक अनुसंधान और जागरूकता
वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दों पर शोध और जागरूकता अभियानों को बढ़ावा देना आवश्यक है, ताकि नीति-निर्माण में सटीक वैज्ञानिक प्रमाणों का उपयोग हो सके।
निष्कर्ष
वैश्विक कॉमन्स की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण वैश्विक चुनौती है, जिसमें वैज्ञानिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक जुड़े हुए हैं। हालाँकि, अंटार्कटिक संधि और मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल जैसे सफल उदाहरण यह दर्शाते हैं कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से प्रभावी समाधान संभव हैं। लेकिन बाह्य अंतरिक्ष, समुद्री संसाधनों और जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में अभी भी महत्वपूर्ण सुधार की आवश्यकता है। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय न्यायसंगत और पारदर्शी नीतियों को अपनाता है, तो वैश्विक कॉमन्स को संरक्षित किया जा सकता है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक संतुलित पर्यावरण सुनिश्चित किया जा सकता है।
ज़रूर, आइए इस महत्वपूर्ण अवधारणा का गहराई से विश्लेषण करते हैं!
साझा लेकिन भिन्न उत्तरदायित्व (Common but Differentiated Responsibilities - CBDR) एक ऐसी सिद्धांत है जिसे 1992 में रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit) के दौरान रियो घोषणा (Rio Declaration) में स्वीकार किया गया। यह सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय कानून के विकास, अनुप्रयोग, और व्याख्या में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।
1. पृष्ठभूमि: उत्तर और दक्षिण के दृष्टिकोण में अंतर
वैश्विक उत्तर (Global North): विकसित देशों का मानना है कि सभी देशों को समान रूप से पारिस्थितिकी संरक्षण के लिए ज़िम्मेदार होना चाहिए। वे चाहते हैं कि वर्तमान पर्यावरणीय संकट पर चर्चा की जाए और सभी देश समान दायित्व निभाएं।
वैश्विक दक्षिण (Global South): विकासशील देशों का तर्क है कि वर्तमान पारिस्थितिकी क्षरण मुख्य रूप से विकसित देशों द्वारा किए गए औद्योगिक विकास का परिणाम है। उनका मानना है कि जिन्होंने अधिक नुकसान किया है, उन्हें ही उसे ठीक करने की अधिक ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। इसके अलावा, ये देश अभी औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में हैं और उन पर वही प्रतिबंध लागू नहीं होने चाहिए जो विकसित देशों पर लागू होते हैं।
CBDR का यही तर्क है कि हर देश की ज़िम्मेदारी "साझा" है क्योंकि सभी पर्यावरणीय क्षरण से प्रभावित होते हैं, लेकिन "भिन्न" भी है क्योंकि देशों के ऐतिहासिक योगदान और वर्तमान क्षमता अलग-अलग हैं।
2. रियो घोषणा और UNFCCC
रियो घोषणा (1992): इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि "राज्य वैश्विक साझेदारी की भावना में पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य और अखंडता को संरक्षित, सुरक्षित और पुनर्स्थापित करने के लिए सहयोग करेंगे। वैश्विक पर्यावरणीय क्षरण में विभिन्न योगदानों को ध्यान में रखते हुए, राज्यों की साझा लेकिन भिन्न उत्तरदायित्वें हैं।"
UNFCCC (1992): यह संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन है, जिसमें कहा गया है कि पार्टियों को "समानता के आधार पर और अपनी साझा लेकिन भिन्न उत्तरदायित्वों और संबंधित क्षमताओं के अनुसार" जलवायु प्रणाली की सुरक्षा के लिए कार्य करना चाहिए।
3. क्योटो प्रोटोकॉल (1997)
लक्ष्य: यह प्रोटोकॉल औद्योगिक देशों के लिए ग्रीनहाउस गैसों (जैसे CO2, CH4, HFCs) के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित करता है, क्योंकि ये गैसें ग्लोबल वार्मिंग के लिए आंशिक रूप से ज़िम्मेदार मानी जाती हैं।
अन्य देशों को छूट: चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों को इन लक्ष्यों से छूट दी गई थी, क्योंकि उनकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर अभी भी अपेक्षाकृत कम थी और वे औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में थे।
4. सिद्धांत का महत्व और आलोचना
महत्व:
यह सिद्धांत पर्यावरणीय न्याय की भावना को बढ़ावा देता है।
यह विकासशील देशों की विशेष जरूरतों और परिस्थितियों को मान्यता देता है।
यह वैश्विक उत्तर और दक्षिण के बीच पर्यावरणीय वार्ता को एक नैतिक और तार्किक आधार प्रदान करता है।
आलोचना:
विकसित देश कभी-कभी यह महसूस करते हैं कि इस सिद्धांत के कारण विकासशील देशों पर पर्याप्त पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी नहीं डाली जाती।
कुछ लोग इसे एक प्रकार की "पर्यावरणीय सब्सिडी" मानते हैं, जिसमें विकासशील देश अपने उत्सर्जन को नियंत्रित किए बिना औद्योगिकीकरण कर सकते हैं।
5. भविष्य की दिशा
साझा समाधान: आज की जलवायु संकट को हल करने के लिए सभी देशों को मिलकर काम करना होगा। विकसित देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करनी चाहिए, जबकि विकासशील देशों को अपने विकास को हरित और टिकाऊ बनाना चाहिए।
न्यायसंगत ऊर्जा परिवर्तन: स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा, हरित प्रौद्योगिकी, और सतत कृषि को बढ़ावा देना आवश्यक है।
वैश्विक सहयोग: पेरिस समझौते (2015) जैसी पहलें इस दिशा में एक बड़ा कदम हैं, जहाँ सभी देशों ने मिलकर तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य रखा।
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विश्लेषण: कॉमन प्रॉपर्टी रिसोर्सेज और भारत का पर्यावरणीय दृष्टिकोण
1. कॉमन प्रॉपर्टी रिसोर्सेज (Common Property Resources - CPRs)
कॉमन प्रॉपर्टी उन संसाधनों को संदर्भित करता है जो किसी व्यक्ति विशेष की निजी संपत्ति नहीं होते, बल्कि एक समुदाय द्वारा साझा किए जाते हैं। इन संसाधनों के उपयोग और रखरखाव के संबंध में समुदाय के सदस्यों के अधिकार और कर्तव्य होते हैं।
महत्वपूर्ण विशेषताएँ:
1. सामुदायिक स्वामित्व: यह संसाधन समुदाय के सभी सदस्यों द्वारा साझा किए जाते हैं और सामूहिक रूप से प्रबंधित किए जाते हैं।
2. नियम और परंपराएँ: समुदाय के भीतर संसाधनों के उपयोग और संरक्षण के लिए पारंपरिक नियम और व्यवस्थाएँ होती हैं।
3. बदलती चुनौतियाँ: निजीकरण, जनसंख्या वृद्धि, कृषि में तीव्रता, और पारिस्थितिकीय क्षरण के कारण कॉमन प्रॉपर्टी संसाधनों का आकार, गुणवत्ता, और उपलब्धता लगातार घट रही है।
4. भारत में उदाहरण:
पवित्र उपवन (Sacred Groves): दक्षिण भारत में जंगलों के किनारे पारंपरिक रूप से संरक्षित क्षेत्र, जो स्थानीय समुदायों द्वारा नियंत्रित होते हैं।
ग्रामीण तालाब, चारागाह, और वन क्षेत्र: जो कई दशकों से ग्रामीण समुदायों द्वारा संरक्षित किए जाते रहे हैं।
चुनौतियाँ और संभावित समाधान
निजीकरण और सरकारी नीतियों के कारण पारंपरिक कॉमन रिसोर्स मैनेजमेंट कमजोर हो रहा है।
सतत विकास के लिए इन संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन को मजबूत करने की आवश्यकता है।
सरकार को स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर संरक्षण कार्यक्रमों को लागू करना चाहिए।
2. भारत का पर्यावरणीय दृष्टिकोण
भारत ने अपने पर्यावरणीय दृष्टिकोण को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हमेशा स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया है। भारत की पर्यावरण नीति का आधार "साझा लेकिन भिन्न उत्तरदायित्व" (Common but Differentiated Responsibilities - CBDR) सिद्धांत है, जिसे 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) में अपनाया गया था।
(i) क्योटो प्रोटोकॉल और भारत
भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर और पुष्टि की।
भारत और चीन को इस प्रोटोकॉल के दायित्वों से छूट दी गई थी, क्योंकि उनके ऐतिहासिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन स्तर विकसित देशों की तुलना में बहुत कम थे।
हालांकि, आलोचकों का मानना है कि भविष्य में भारत और चीन प्रमुख उत्सर्जक देशों में शामिल होंगे।
(ii) G-8 बैठक (2005) में भारत का रुख
भारत ने कहा कि विकासशील देशों की प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है।
इसलिए, कार्बन उत्सर्जन में कटौती की मुख्य ज़िम्मेदारी विकसित देशों पर होनी चाहिए।
भारत ने UNFCCC में ऐतिहासिक उत्तरदायित्व (Historical Responsibility) के सिद्धांत को अपनाया, जिसमें कहा गया कि विकसित देश दशकों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मुख्य स्रोत रहे हैं, इसलिए अब उनकी ज़िम्मेदारी अधिक है।
(iii) भारत की पर्यावरणीय नीतियाँ और प्रयास
1. राष्ट्रीय ऑटो-ईंधन नीति (National Auto-Fuel Policy): वाहनों के लिए स्वच्छ ईंधन अपनाने का लक्ष्य।
2. ऊर्जा संरक्षण अधिनियम (Energy Conservation Act, 2001): ऊर्जा दक्षता में सुधार लाने के लिए प्रयास।
3. विद्युत अधिनियम (Electricity Act, 2003): नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कानून।
4. स्वच्छ कोयला तकनीक (Clean Coal Technology): भारत प्राकृतिक गैस का आयात कर रहा है और कोयले से कम प्रदूषण फैलाने वाली तकनीकों को अपनाने पर जोर दे रहा है।
5. राष्ट्रीय जैवईंधन मिशन (National Mission on Biodiesel): 2011-12 तक 11 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर जैवईंधन उत्पादन की योजना।
6. पेरिस जलवायु समझौता (Paris Climate Agreement, 2016): भारत ने 2 अक्टूबर 2016 को इस समझौते की पुष्टि की।
7. नवीकरणीय ऊर्जा कार्यक्रम: भारत दुनिया के सबसे बड़े नवीकरणीय ऊर्जा कार्यक्रमों में से एक संचालित कर रहा है।
(iv) विकासशील देशों के लिए भारत की मांग
भारत का मानना है कि विकसित देशों को "नवीन और अतिरिक्त वित्तीय संसाधन तथा पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों" को सस्ती शर्तों पर विकासशील देशों को उपलब्ध कराना चाहिए।
भारत चाहता है कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) के देश एक समान पर्यावरणीय नीति अपनाएँ ताकि वैश्विक स्तर पर क्षेत्रीय आवाज़ को मजबूती मिले।
3. निष्कर्ष
भारत का दृष्टिकोण न्यायसंगत और व्यावहारिक है। भारत मानता है कि पर्यावरणीय संकट वैश्विक समस्या है, लेकिन इसका समाधान ऐतिहासिक जिम्मेदारियों और वर्तमान विकासात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।
भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के साथ अपनी घरेलू नीतियों को भी मजबूत किया है। भारत की ऊर्जा नीतियाँ, जैवईंधन मिशन, स्वच्छ कोयला तकनीक और अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम इसकी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।
विकासशील देशों के लिए वित्तीय और तकनीकी सहयोग की मांग जायज़ है। जब तक गरीब और औद्योगीकरण की प्रक्रिया में लगे देशों को सस्ती पर्यावरणीय तकनीक और वित्तीय सहायता नहीं दी जाती, सतत विकास (Sustainable Development) का लक्ष्य अधूरा रहेगा।
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विश्लेषण: पर्यावरणीय आंदोलन - एक या कई?
इस भाग में, लेखक पर्यावरणीय आंदोलनों की विविधता और उनकी महत्ता को रेखांकित करते हैं, जो मुख्य रूप से सरकारी प्रतिक्रियाओं के अलावा, दुनिया भर में स्वयंसेवी समूहों द्वारा उत्पन्न हुई हैं। यह आंदोलनों की विविधता, उनकी अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर प्रभावशीलता, और उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए नए राजनीतिक दृष्टिकोणों पर ध्यान केंद्रित करता है।
1. पर्यावरणीय आंदोलनों की विविधता
पर्यावरणीय आंदोलन न केवल वैश्विक स्तर पर, बल्कि स्थानीय स्तर पर भी सक्रिय हैं। ये आंदोलन कई प्रकार के होते हैं, और प्रत्येक आंदोलन की अपनी विशिष्ट विशेषताएँ और संघर्ष होते हैं:
1. दक्षिणी देशों के वन आंदोलन:
ब्राजील, मेक्सिको, भारत, अफ्रीका जैसी जगहों पर, जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ सक्रिय पर्यावरणीय आंदोलन हो रहे हैं।
इन आंदोलनों का उद्देश्य न केवल पर्यावरण की रक्षा करना है, बल्कि स्थानीय समुदायों की संस्कृति और जीवनशैली को भी बचाना है।
2. खनिज उद्योग के खिलाफ आंदोलन:
खनिज उद्योग, जो बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है, पर्यावरणीय नुकसान, प्रदूषण और समुदायों के विस्थापन का कारण बनता है।
फिलीपींस में पश्चिमी खनन कंपनियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन इसका उदाहरण है, जहां स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय समूहों ने मिलकर इस उद्योग के खिलाफ संघर्ष किया।
3. महान बांधों के खिलाफ आंदोलन:
हर जगह, जहां भी महान बांध बनाए जा रहे हैं, विरोधी आंदोलन भी उठ खड़े होते हैं।
नर्मदा बचाओ आंदोलन (India) इस प्रकार का सबसे प्रसिद्ध आंदोलन है, जो नदी प्रणाली के बेहतर और न्यायपूर्ण प्रबंधन के लिए संघर्ष करता है।
इन आंदोलनों में अहिंसा का सिद्धांत प्रमुख है, जो संघर्ष के एक सशक्त और नैतिक तरीके के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
2. आंदोलनों का उद्देश्य और साझा विचार
नई राजनीतिक क्रियाएँ: पर्यावरणीय आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य पारंपरिक राजनीतिक प्रणालियों से बाहर निकलकर नए रूपों में राजनीतिक क्रियाओं का जन्म देना है। ये आंदोलन सामूहिक जीवन के लिए नए दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जो केवल पर्यावरणीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण होते हैं।
स्थिरता और समानता: इन आंदोलनों का लक्ष्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को अधिक स्थिर और समान बनाना है। उदाहरण के लिए, प्रो-रिवर आंदोलन का उद्देश्य नदी घाटियों और जल प्रबंधन की दिशा में अधिक न्यायसंगत नीति अपनाना है।
अहिंसा का सिद्धांत: भारत के आंदोलनों में विशेष रूप से, जैसे कि नर्मदा बचाओ आंदोलन, अहिंसा एक महत्वपूर्ण आधार है। यह सिद्धांत आंदोलन के भीतर संघर्षों को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का प्रयास करता है।
3. पर्यावरणीय आंदोलनों की चुनौतियाँ
आर्थिक दबाव: वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुक्त व्यापार और उदारीकरण के कारण दक्षिणी देशों में खनिज उद्योग और अन्य भारी परियोजनाओं में वृद्धि हो रही है, जो इन आंदोलनों के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है।
राजनीतिक और सामाजिक दबाव: इन आंदोलनों का सामना कभी-कभी स्थानीय सरकारों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अन्य शक्तिशाली ताकतों से होता है, जो इन संघर्षों को दबाने के लिए हिंसा या कानूनी दवाब का इस्तेमाल कर सकती हैं।
विविधता और गठबंधन: हर आंदोलन की अलग-अलग जरूरतें और प्राथमिकताएँ होती हैं, जो उनकी सफलता या विफलता में भूमिका निभाती हैं। हालांकि, यह आंदोलनों की विविधता उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में सशक्त बनाती है।
4. समग्र प्रभाव और वैश्विक दृष्टिकोण
पर्यावरणीय आंदोलन अब वैश्विक सामाजिक आंदोलनों के रूप में विकसित हो गए हैं, जिनका लक्ष्य केवल पर्यावरणीय मुद्दों को ही हल करना नहीं है, बल्कि पूरे समाज की संरचना और इसके विकास के मॉडल को भी पुनः परिभाषित करना है।
इन आंदोलनों ने नए विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न किए हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों के अधिक न्यायपूर्ण और स्थिर प्रबंधन पर बल देते हैं।
सामाजिक और आर्थिक समानता का दृष्टिकोण, जो इन आंदोलनों में मौजूद है, वह एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए ज़रूरी कदम हो सकता है।
निष्कर्ष
पर्यावरणीय आंदोलन न केवल सरकारों की नीतियों पर प्रभाव डाल रहे हैं, बल्कि समाज के विभिन्न हिस्सों में जागरूकता और बदलाव ला रहे हैं।
इन आंदोलनों की विविधता और स्थानीय संघर्षों की विशेषताएँ, इनकी प्रभावशीलता और बढ़ती ताकत को प्रदर्शित करती हैं।
आध्यात्मिक सिद्धांत, जैसे अहिंसा और समानता, इन आंदोलनों के लिए एक नैतिक आधार प्रदान करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि पर्यावरणीय आंदोलन केवल प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं, बल्कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा भी कर रहे हैं।
क्या आपको लगता है कि इन आंदोलनों की विविधता उन्हें वैश्विक स्तर पर और अधिक प्रभावी बनाती है?
विश्लेषण: संसाधन भू-राजनीति
संसाधन भू-राजनीति, एक व्यापक और जटिल क्षेत्र है, जिसमें यह निर्धारित किया जाता है कि कौन सा देश कब, कहाँ और कैसे संसाधनों का उपयोग करता है। यह वैश्विक शक्ति संघर्ष और विस्तार की प्रक्रिया को प्रभावित करता है, खासकर प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और नियंत्रण के संदर्भ में। इस खंड में, लेखक ने संसाधनों के महत्व को वैश्विक राजनीति में और विशेष रूप से यूरोपीय शक्तियों के विस्तार में देखा है, और इसके बाद के प्रभावों को स्पष्ट किया है।
1. संसाधनों का ऐतिहासिक महत्व
यूरोपीय विस्तार और संसाधन नियंत्रण:
यूरोपीय शक्तियों के वैश्विक विस्तार का मुख्य कारण संसाधनों का नियंत्रण था। समुद्री मार्गों और विदेशी संसाधनों की उपलब्धता ने युद्ध, व्यापार, और शक्ति संघर्षों को उत्पन्न किया। विशेष रूप से, 17वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक, नौसेना के लिए लकड़ी (विशेषकर शाही नौसेना के लिए) एक महत्वपूर्ण संसाधन बन गया।
संसाधनों का रणनीतिक महत्व:
ऑयल (तेल) का महत्व विशेष रूप से युद्धों और वैश्विक शक्ति संघर्षों में उभरा। पहली और दूसरी विश्व युद्धों में, तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सैन्य बलों की तैनाती, रणनीतिक भंडारण, और अनुकूल अंतर्राष्ट्रीय समझौतों की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
2. तेल: वैश्विक भू-राजनीति का केंद्रीय संसाधन
गुल्फ क्षेत्र का महत्व:
पश्चिम एशिया (खाड़ी क्षेत्र) में तेल का अत्यधिक भंडार है, जो वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनता है। इस क्षेत्र में सऊदी अरब, जो दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक है, वैश्विक तेल आपूर्ति में अहम भूमिका निभाता है। इराक और ईरान जैसे देशों के विशाल तेल भंडार भी इस क्षेत्र के वैश्विक भू-राजनीतिक महत्व को और बढ़ाते हैं।
राजनीतिक संघर्ष:
तेल का अत्यधिक संपत्ति और उसकी आपूर्ति पर नियंत्रण पाने के लिए वैश्विक शक्तियों के बीच लगातार संघर्ष हुआ है। यह संघर्ष युद्धों (जैसे इराक युद्ध) में बदल गया, जहां तेल संसाधनों के नियंत्रण के लिए राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य दबाव बनाए गए।
3. जल: भविष्य की भू-राजनीति का नया मोर्चा
जल संकट और संघर्ष:
जल, जीवन के लिए आवश्यक संसाधन होने के बावजूद, वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बढ़ती जल scarcity और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से, जल संघर्ष भविष्य में एक प्रमुख भू-राजनीतिक चुनौती बन सकते हैं।
नदियों पर संघर्ष:
देशों के बीच साझा जल संसाधनों पर विवाद अक्सर हिंसा और सैन्य संघर्ष का कारण बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, जॉर्डन नदी और यर्मुक नदी के जल वितरण पर इजरायल, सीरिया, और जॉर्डन के बीच 1950 और 1960 के दशक में संघर्ष हुए थे। इसी तरह, तुर्की, सीरिया, और इराक के बीच एउफ्रेट्स नदी पर बांधों के निर्माण को लेकर विवाद भी हैं।
जल युद्ध:
कई विशेषज्ञों का मानना है कि भविष्य में जल संकट के कारण जल युद्धों की संभावना बढ़ सकती है। यह देशों के बीच तनाव, सीमा विवाद और सैन्य संघर्षों का कारण बन सकता है।
4. वैश्विक भू-राजनीति में जल और तेल का महत्त्व
संसाधनों की राजनीतिक और आर्थिक महत्वता:
तेल और जल जैसे संसाधन वैश्विक शक्ति संघर्षों का केंद्र बनते हैं, जहां विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच दबाव और टकराव होता है। तेल के मामले में, वैश्विक शक्तियाँ (अमेरिका, यूरोप, जापान, और चीन) तेल के निर्यातक देशों पर प्रभाव बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक और सैन्य रणनीतियों का उपयोग करती हैं। जल के मामले में, देशों के बीच जल विवादों का समाधान ढूंढने के लिए कूटनीतिक प्रयासों की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष
संसाधन भू-राजनीति की इस चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि तेल और जल जैसे संसाधनों का नियंत्रण, वैश्विक राजनीति में शक्ति, संघर्ष, और सहयोग की दिशा को निर्धारित करता है।
तेल, विशेष रूप से पश्चिम एशिया में, भू-राजनीतिक संघर्षों के प्रमुख कारणों में से एक है। दूसरी ओर, जल संकट भविष्य में और भी बड़े संघर्षों का कारण बन सकता है, खासकर जब कई देशों के बीच साझा जल स्रोतों पर अधिकार को लेकर विवाद हो।
जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की सीमित आपूर्ति भविष्य में देशों के राजनीतिक और आर्थिक निर्णयों को और प्रभावित करेंगे, जिससे वैश्विक सहयोग और संघर्ष की नई परिभाषाएँ सामने आएंगी।
क्या आपको लगता है कि जल संकट भविष्य में वास्तव में 'जल युद्धों' का रूप ले सकता है, जैसा कि कुछ विशेषज्ञों ने अनुमानित किया है?
विश्लेषण: स्वदेशी लोग और उनके अधिकार
स्वदेशी लोगों का सवाल आज वैश्विक राजनीति, संसाधनों, और पर्यावरण के मुद्दों से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। इन समुदायों की राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान, और उनका पर्यावरणीय दृष्टिकोण, उन्हें आधुनिक राष्ट्रों के भीतर अपनी विशेष भूमिका और अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करने पर मजबूर करता है।
1. स्वदेशी लोगों की परिभाषा और भौगोलिक स्थिति
स्वदेशी लोगों की पहचान: संयुक्त राष्ट्र (UN) के अनुसार, स्वदेशी लोग वे हैं जो वर्तमान राष्ट्र के भीतर उस समय निवास करते थे जब बाहरी संस्कृति या जातीय समूह वहां पहुंचे थे और उन्होंने उन्हें पराजित किया। आज, स्वदेशी लोग अक्सर अपने सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक परंपराओं के अनुसार जीवन जीते हैं, जो अधिकांशत: उस राष्ट्र की संस्थाओं से अलग होते हैं।
भौगोलिक स्थिति: दुनिया भर में लगभग 30 करोड़ स्वदेशी लोग फैले हुए हैं, जिनमें भारत, फिलीपींस, चिली, बांग्लादेश, दक्षिण और मध्य अमेरिका, अफ्रीका, और ओशिनिया क्षेत्र शामिल हैं। ये लोग अपने विशिष्ट स्थानों पर हजारों वर्षों से निवास कर रहे हैं, और इनकी सांस्कृतिक पहचान आज भी जीवित है।
2. भूमि का महत्व और स्वदेशी लोगों का संघर्ष
भूमि का हरण और अस्तित्व संकट: स्वदेशी लोगों के लिए भूमि केवल एक भौतिक संसाधन नहीं, बल्कि उनके जीवन, संस्कृति और अस्तित्व का आधार है। भूमि की हानि, यानी उनके पारंपरिक संसाधनों का समाप्त होना, स्वदेशी लोगों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसके साथ ही, वे आर्थिक रूप से भी प्रभावित होते हैं, क्योंकि भूमि उनके मुख्य आर्थिक संसाधन का स्रोत होती है।
राजनीतिक स्वायत्तता का संकट: जब स्वदेशी लोग अपनी भूमि खो देते हैं, तो उनकी राजनीतिक स्वायत्तता और सामाजिक पहचान भी संकट में पड़ जाती है। राजनीतिक स्वायत्तता केवल शारीरिक अस्तित्व से जुड़ी हुई है, और बिना संसाधनों के स्वतंत्रता और स्वायत्तता का कोई मूल्य नहीं रहता।
3. भारत में स्वदेशी लोग (आदिवासी)
आदिवासी समुदाय की स्थिति: भारत में, स्वदेशी लोगों के रूप में सामान्यत: आदिवासी समुदायों को पहचाना जाता है, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत हैं। इन समुदायों का मुख्य जीवन-यापन भूमि पर कृषि से जुड़ा हुआ है। ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के समय से पहले, इन समुदायों को अपनी भूमि पर मुक्त रूप से कृषि करने का अधिकार था। लेकिन औपनिवेशिक शासन के बाद, उनके भूमि अधिकारों में बाधाएं आईं और बाहरी ताकतों द्वारा उनका शोषण किया गया।
विकास की कीमत: स्वतंत्रता के बाद, भारत में विकास परियोजनाओं ने आदिवासी समुदायों को बड़ी मात्रा में विस्थापित किया। हालांकि उन्हें संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है, लेकिन विकास के लाभ से वे पर्याप्त रूप से लाभान्वित नहीं हो पाए हैं। इसके विपरीत, वे विकास के सबसे बड़े पीड़ित रहे हैं क्योंकि कई विकासात्मक परियोजनाओं ने उनकी भूमि और संसाधनों का हरण किया।
4. अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष और स्वदेशी आंदोलनों का उदय
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और साझा चिंताएं: 1970 के दशक में, विभिन्न स्वदेशी नेताओं के बीच बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय संपर्कों ने एक साझा चिंता और अनुभव की भावना को जन्म दिया। इस समय विश्व स्वदेशी परिषद (World Council of Indigenous Peoples) की स्थापना हुई, जो स्वदेशी लोगों के अधिकारों के लिए एक आवाज़ बनी।
वैश्वीकरण और स्वदेशी अधिकार: वैश्वीकरण के खिलाफ कई आंदोलनों ने स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता को उजागर किया है। ये आंदोलनों इस बात पर जोर देते हैं कि स्वदेशी लोगों को उनके अधिकार, उनकी भूमि, और उनके संसाधनों का सम्मान मिलना चाहिए, और उनका विकास किसी बाहरी दबाव के बिना स्वाभाविक रूप से होना चाहिए।
5. स्वदेशी अधिकारों का वैश्विक संदर्भ
स्वदेशी लोगों के अधिकारों का संरक्षण: स्वदेशी लोगों के अधिकारों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर स्वीकार किया गया है, लेकिन यह मुद्दा अब भी उपेक्षित है। इन समुदायों के अधिकारों की उपेक्षा, उनके भूमि हक, और उनके पारंपरिक संसाधनों का हरण, वैश्विक राजनीति में गंभीर चुनौती बना हुआ है।
वैश्विक आंदोलन: स्वदेशी अधिकारों को लेकर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों (NGOs) और राजनीतिक आंदोलनों ने महत्वपूर्ण काम किया है। इन संगठनों ने स्वदेशी लोगों के अधिकारों को मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष किया है और सरकारों पर दबाव डाला है कि वे स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करें।
निष्कर्ष
स्वदेशी लोगों का संघर्ष केवल भूमि और संसाधनों के हरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनके अस्तित्व, संस्कृति, और पहचान के बचाव का मुद्दा भी है। भारत और अन्य देशों में स्वदेशी लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष, एक व्यापक वैश्विक आंदोलन बन चुका है, जो न केवल इन समुदायों के हक में है, बल्कि उनकी सम्मानजनक पहचान और विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह संघर्ष एक महत्वपूर्ण वैश्विक राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बन चुका है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
आपके विचार में, क्या स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए और अधिक अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने की आवश्यकता है?
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