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12th Political Science Complete Notes

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Historic Verdict: SC Stops Governors from Playing President Card

राज्यपाल दूसरी बार अपना मन नहीं बदल सकते: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

नई दिल्ली, 8 अप्रैल 2025 – सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महत्वपूर्ण और स्पष्ट निर्णय में यह स्थापित किया कि राज्यपाल किसी विधेयक को दूसरी बार राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किए जाने के बाद उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ नहीं भेज सकते। यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 200 की व्याख्या और राज्यपालों की शक्तियों के दायरे को परिभाषित करने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

मामले की पृष्ठभूमि: तमिलनाडु के राज्यपाल का विवाद

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह टिप्पणी तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के उस कदम के संदर्भ में की, जिसमें उन्होंने 10 विधेयकों को पहले अस्वीकार किया और फिर विधानसभा द्वारा पुनः पारित किए जाने के बाद उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया। कोर्ट ने इस कार्रवाई को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि राज्यपाल को यह निर्णय पहली बार में ही लेना चाहिए था, न कि दूसरी बार विधेयक उनके समक्ष आने पर। पीठ ने इसे "सच्चा निर्णय नहीं" माना और राज्यपाल के आचरण पर सवाल उठाए।

संविधान के अनुच्छेद 200 का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 200 के प्रावधानों की गहन समीक्षा की। इस अनुच्छेद के तहत राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं:

  • विधेयक को स्वीकृति देना।
  • विधेयक को अस्वीकार कर विधानमंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेजना।
  • विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखना।
हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब कोई विधेयक पहली बार अस्वीकार कर पुनर्विचार के लिए भेजा जाता है और विधानमंडल उसे दोबारा पारित कर राज्यपाल के पास भेजता है, तो राज्यपाल के पास इसे राष्ट्रपति को भेजने का अधिकार नहीं रह जाता। 

पीठ ने कहा:
"सामान्य नियम के अनुसार, राज्यपाल के लिए यह अधिकार नहीं है कि वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखें, जब वह पहले परंतुक (अनुच्छेद 200 के) के अनुसार सदन में वापस भेजे जाने के बाद दूसरे दौर में उनके समक्ष प्रस्तुत किया गया हो।"

समयबद्ध निर्णय की अनिवार्यता

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि पुनः प्रस्तुत विधेयक पर राज्यपाल को तुरंत या अधिकतम एक माह के भीतर निर्णय लेना होगा। कोर्ट ने कहा कि देरी करना या विधेयक को लंबित रखना संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है। यह टिप्पणी राज्यपालों के उस रवैये पर कटाक्ष करती है, जिसमें वे विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोककर रखते हैं।

राज्यपाल के विवेकाधिकार पर सख्त रुख

न्यायालय ने अपने फैसले में ऐतिहासिक संदर्भ भी जोड़ा। कोर्ट ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 200, भारत सरकार अधिनियम 1935 की धारा 75 से अलग है। 1935 के अधिनियम में राज्यपाल को "अपने विवेक से" निर्णय लेने की शक्ति दी गई थी, लेकिन संविधान में यह शब्दावली हटा दी गई। इससे स्पष्ट है कि अब राज्यपाल के पास ऐसा कोई मनमाना विवेकाधिकार नहीं है। 

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:

"पहले प्रावधान में 'इस पर सहमति नहीं रोकेंगे' अभिव्यक्ति का प्रयोग राज्यपाल पर स्पष्ट प्रतिबंध लगाता है और यह आवश्यकता दर्शाता है कि राज्यपाल को इस स्थिति में विधेयक को स्वीकार करना चाहिए।"

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे "सभी राज्य सरकारों की जीत" बताया। उन्होंने कहा कि यह निर्णय राज्यपालों को जनता की चुनी हुई सरकारों के साथ सहयोग करने के लिए बाध्य करेगा। स्टालिन ने राज्यपाल रवि पर विधायी प्रक्रिया को बाधित करने का आरोप लगाया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने मजबूती दी।

व्यापक प्रभाव

यह फैसला न केवल तमिलनाडु बल्कि पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है। कई राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच विधेयकों को लेकर टकराव देखा जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय के जरिए राज्यपालों को चेतावनी दी है कि वे संवैधानिक सीमाओं का पालन करें और जनता की इच्छा को प्राथमिकता दें। कोर्ट ने कहा:
"राज्यपालों का दायित्व है कि वे जनता की इच्छा को प्राथमिकता दें।"

निष्कर्ष और भविष्य

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल को नोटिस जारी किया और उनके आचरण को असंवैधानिक ठहराया। यह फैसला संघीय ढांचे को मजबूत करने और राज्यपालों की मनमानी पर अंकुश लगाने की दिशा में एक कदम है। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्यपाल इस निर्णय को कैसे लागू करते हैं और क्या यह राज्य सरकारों के साथ उनके संबंधों में बदलाव लाता है।

यह लेख न केवल घटना का विस्तृत विवरण देता है, बल्कि इसके संवैधानिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रभावों को भी रेखांकित करता है, जो इसे परीक्षा और सामान्य ज्ञान के लिए उपयोगी बनाता है।

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