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Directive Principles of State Policy: Guiding India's Vision for a Welfare State

 राज्य के नीति निदेशक तत्व: कल्याणकारी राज्य का मार्गदर्शक दर्शन प्रस्तावना: संविधान की आत्मा का जीवंत हिस्सा भारतीय संविधान का भाग 4, जो अनुच्छेद 36 से 51 तक फैला है, 'राज्य के नीति निदेशक तत्व' (Directive Principles of State Policy – DPSPs) का खजाना है। ये तत्व भारत को एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की ओर ले जाने का सपना दिखाते हैं, जहाँ न केवल राजनीतिक आज़ादी हो, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय भी हर नागरिक तक पहुँचे। ये तत्व भले ही अदालतों में लागू करवाने योग्य न हों, लेकिन ये संविधान की उस चेतना को दर्शाते हैं जो भारत को समता, न्याय और बंधुत्व का देश बनाने की प्रेरणा देती है।  यह संपादकीय लेख भाग 4 के महत्व, इसके ऐतिहासिक और समकालीन संदर्भ, इसकी उपलब्धियों और चुनौतियों को सरल, रुचिकर और गहन तरीके से प्रस्तुत करता है। आइए, इस यात्रा में शामिल हों और समझें कि कैसे ये तत्व आज भी भारत के भविष्य को आकार दे रहे हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: स्वतंत्र भारत का नीतिगत सपना जब भारत ने 1947 में आज़ादी हासिल की, तब संविधान निर्माताओं के सामने एक सवाल था: स्वतंत्र भारत कैसा होगा? क्या वह केवल औपनिवे...

एक दल के प्रभुत्व का दौर

भूमिका ( Introduction ) 

 ● भारत के सामने शुरुआत से ही राष्ट्र निर्माण की चुनौती थी। ऐसी चुनौतियों की चपेट में आकर दुनिया के कई अन्य नवस्वतंत्र देशों के नेताओं ने फैसला किया था कि उनके देश में अभी लोकतंत्र को नहीं अपनाया जा सकता है ।

 • उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए कई देशों में इसी कारण अलोकतांत्रिक शासन - व्यवस्था कायम हुई । इस अलोकतांत्रिक शासन - व्यवस्था के कई रूप थे । • कहीं पर थोड़ा - बहुत लोकतंत्र रहा , लेकिन प्रभावी नियंत्रण किसी एक नेता के हाथ में था तो कहीं पर एक दल का शासन कायम हुआ और कहीं - कहीं पर सीधे - सीधे सेना ने सत्ता की बागडोर सँभाली । 

 ● भारत में भी परिस्थितियाँ बहुत अलग नहीं थीं , लेकिन स्वतंत्र भारत के नेताओं ने देश के लिये लोकतंत्र के रूप में कहीं अधिक कठिन रास्ता चुनने का निर्णय किया । 

 • भारत का संविधान 26 नवंबर , 1949 को अंगीकृत किया गया और 24 जनवरी , 1950 को इस पर हस्ताक्षर हुए । यह संविधान 26 जनवरी , 1950 से लागू हुआ । उस समय देश का शासन अंतरिम सरकार चला रही थी ।

 • समय की मांग थी कि देश का शासन लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा चलाया जाए । संविधान ने नियम तय कर दिये थे और अब इन्हीं नियमों पर अमल करने की आवश्यकता थी । 

 • इसी क्रम में भारत के चुनाव आयोग का गठन 1950 में 25 जनवरी को हुआ । सुकुमार सेन पहले चुनाव आयुक्त बने । आशा की जा रही थी कि देश का पहला आम चुनाव 1950 में ही किसी समय हो जाएगा । 

 • हालाँकि भारत के आकार को देखते हुए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष आम चुनाव कराना कोई आसान मामला नहीं था । चुनाव कराने के लिये चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन ज़रूरी था, फिर मतदाता सूची यानी मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की सूची बनाना भी आवश्यक था । इन दोनों कामों में बहुत समय लगा ।

 • उस समय देश में 17 करोड़ मतदाता थे । इन्हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिये 489 सांसद चुनने थे । इन मतदाताओं में से महज 15 फीसदी साक्षर थे । इस कारण चुनाव आयोग को मतदान की विशेष पद्धति के बारे में भी सोचना पड़ा ।

 • इस समय तक लोकतंत्र सिर्फ धनी देशों में ही विद्यमान था । यूरोप के कई देशों में महिलाओं को मताधिकार भी नहीं मिला था । ऐसे में भारत में सार्वभौम मताधिकार लागू हुआ और यह अपने आप में बड़ा जोखिम भरा प्रयोग था । 

 ● चुनावों को दो बार स्थगित करना पड़ा और आखिरकार 1951 के अक्तूबर से 1952 के फरवरी तक चुनाव हुए । इस चुनाव को सामान्यतः 1952 का चुनाव ही कहा जाता है क्योंकि देश के अधिकांश हिस्सों में मतदान 1952 में ही हुए । चुनाव अभियान , मतदान और मतगणना में कुल छह महीने लगे । 

 ● 1952 का आम चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिये मील का पत्थर साबित हुआ । अब यह दलील दे पाना संभव नहीं रहा कि लोकतांत्रिक चुनाव गरीबी अथवा अशिक्षा के माहौल में नहीं कराए जा सकते । यह बात साबित हो गई कि दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र पर अमल किया जा सकता है ।

 प्रथम तीन आम चुनाव ( First Three General Election )

• पहले आम चुनाव के नतीजों से आशा यही थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस चुनाव में जीत जाएगी । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी था और इस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत हासिल थी । तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में था ।

 • आशा के अनुरूप कांग्रेस ने लोकसभा के पहले चुनाव में कुल 489 सीटों में 364 सीटें जीतीं और इस तरह वह किसी भी प्रतिद्वंद्वी से चुनावी दौड़ में बहुत आगे निकल गई । पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर पर रही । उसे कुल 16 सीट हासिल हुईं ।

 • लोकसभा के चुनाव के साथ - साथ विधानसभा के भी चुनाव कराए गए थे । कांग्रेस पार्टी को विधानसभा के चुनावों में भी बड़ी जीत हासिल हुई । त्रावणकोर - कोचीन ( आज के केरल का एक हिस्सा ) , मद्रास और उड़ीसा को छोड़कर सभी राज्यों में कांग्रेस ने अधिकतर सीटों पर जीत दर्ज की । अंततः इन तीन राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकार बनी । इस तरह राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का शासन कायम हुआ । आशा के अनुरूप जवाहरलाल नेहरू पहले आम चुनाव के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने । 

 • दूसरा आम चुनाव 1957 में और तीसरा 1962 में हुआ । इन चुनावों में भी कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा में अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखी और उसे तीन - चौथाई सीटें मिली । कांग्रेस पार्टी ने जितनी सीटें जीती थीं उसका दशांश भी कोई विपक्षी पार्टी नहीं जीत सकी । 

 ● 1952 में कांग्रेस पार्टी को कुल वोटों में से मात्र 45 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे लेकिन कांग्रेस को 74 फीसदी सीटें हासिल हुई । सोसलिस्ट पार्टी वोट हासिल करने के हिसाब से दूसरे नंबर पर रही।उसे 1952 के चुनाव में पूरे देश में कुल 10% वोट मिले थे लेकिन यह पार्टी 3 प्रतिशत सीटें भी नहीं जीत पायी। 

• हमारे देश की चुनाव - प्रणाली में ' सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत ' ( First Past the Post ) के तरीके को अपनाया गया है । ऐसे में अगर कोई पार्टी बाकियों की अपेक्षा थोड़े भी अधिक वोट हासिल करती है तो दूसरी पार्टियों को प्राप्त वोटों के अनुपात की तुलना में उसे कहीं अधिक सीटें हासिल होती हैं । यही कांग्रेस पार्टी के पक्ष में साबित हुई ।

 ● 1957 में ही कांग्रेस पार्टी को केरल में हार का सामना करना पड़ गया था । 1957 के मार्च महीने में जो विधानसभा के चुनाव हुए उसमें कम्युनिस्ट पार्टी को केरल की विधानसभा के लिये सबसे ज्यादा सीटें मिलीं । कम्युनिस्ट पार्टी को कुल 126 में से 60 सीटें हासिल हुईं और पाँच स्वतंत्र उम्मीदवारों का भी समर्थन इस पार्टी को प्राप्त था ।

 • राज्यपाल ने कम्युनिस्ट विधायक दल के नेता ई.एम.एस. नंबूदरीपाद को सरकार बनाने का न्यौता दिया । दुनिया में यह पहला अवसर था जब एक कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार लोकतांत्रिक चुनावों के ज़रिये बनी ।

 • 1959 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया । यह फैसला बड़ा विवादास्पद साबित हुआ । संविधान प्रदत्त आपातकालीन शक्तियों के दुरुपयोग के पहले उदाहरण के रूप में इस फैसले का बार - बार उपयोग किया जाता है ।

 राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के प्रभुत्व की प्रकृति(Nature of Congress Dominance at the National Level) 

 ● भारत ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो एक पार्टी के प्रभुत्व के दौर से गुजरा हो । अगर हम दुनिया के बाकी देशों पर नजर दौड़ाएं हमें एक पार्टी के प्रभुत्व के बहुत से उदाहरण मिलेंगे ।

 ● बाकी देशों में एक पार्टी के प्रभुत्व और भारत में एक पार्टी के प्रभुत्व के बीच एक बड़ा भारी फर्क है । बाकी देशों में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ । कुछ देशों , जैस चीन , क्यूबा और सीरिया के संविधान में सिर्फ एक ही पार्टी को देश के शासन की अनुमति दी गई है।

 ● इसके विपरीत भारत में स्थापित एक पार्टी का प्रभुत्व इन उदाहरणों से कहीं अलग है । यहाँ एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतांत्रिक स्थितियों में कायम हुआ । अनेक पार्टियों ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के माहौल में एक - दूसरे से प्रतिस्पर्धा की और तब भी कांग्रेस पार्टी एक के बाद एक चुनाव जीतती गई । 

 • कांग्रेस पार्टी की इस असाधारण सफलता की जड़ें स्वाधीनता संग्राम की विरासत में हैं । कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आंदोलन के उत्तराधिकारी के रूप में देखा गया । स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी रहे अनेक नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे । 
● कांग्रेस पहले से ही एक सुसंगठित पार्टी थी । अनेक पार्टियों का गठन स्वतंत्रता के समय के आस - पास अथवा उसके बाद में हुआ । कांग्रेस को ' अव्वल और इकलौता ' होने का फायदा मिला । आजादी के वक्त तक यह पार्टी देश में चहुंओर फैल चुकी थी । 

 राज्य स्तर पर असमान प्रभुत्व ( Uneven Dominance at the State Level )

●हालांकि राज्य स्तर पर कांग्रेस का वैसा एकछत्र प्रभुत्व नहीं रहा , जैसा राष्ट्रीय स्तर पर था ।  राज्य स्तर पर कांग्रेस के प्रभुत्व को पहला झटका तब लगा जब 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी । इसके अलावा 1967 में भी उत्तर भारत के अनेक राज्यों में गैर - कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ । • इस प्रकार राज्य स्तर पर कांग्रेस के प्रभुत्व को समय - समय पर चुनौती मिलती रही ।

 कांग्रेस की गठबंधन प्रकृति ( Coalitional Nature of Congress ) 

 ● कांग्रेस का गठन 1885 में हुआ था । उस समय यह नवशिक्षित , कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का एक हित - समूह भर थी , लेकिन 20 वीं सदी में इसने जन - आंदोलन का रूप ले लिया ।
 ● आरंभ में कांग्रेस में अंग्रेजी भाषी , सवर्ण , उच्च मध्यम वर्ग और शहरी अभिजन का बोलबाला था । लेकिन कांग्रेस ने जब भी सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलन चलाए तब उसका सामाजिक आधार बढ़ा । कांग्रेस के परस्पर विरोधी हितों के कई समूहों को एक साथ जोड़ा ।
 ● धीरे - धीरे कांग्रेस का नेतृत्ववर्ग भी विस्तृत हुआ । इसका नेतृत्ववर्ग अब उच्च वर्ग या जाति के पेशेवर लोगों तक ही सीमित नहीं रहा । इसमें खेती किसानी की पृष्ठभूमि वाले तथा ग्रामीण रुझान रखने वाले नेता भी उभरे ।
 ● इनमें से अनेक समूहों ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकीकृत कर दिया । कई बार यह भी हुआ कि किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकीकृत नहीं किया और अपने - अपने विश्वासों को मानते हुए बतौर एक व्यक्ति या समूह में कांग्रेस के भीतर बने रहे । 
● कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी, शांतिवादी , रेडिकल , गरमपंथी, नरमपंथी , दक्षिणपंथी , वामपंथी और हर धारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया । कांग्रेस एक मंच की तरह थी , जिस पर अनेक समूह , हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे ।  हालाँकि इन संगठनों और पार्टियों के अपने - अपने संविधान थे । इनका सांगठनिक ढाँचा भी अलग था । इनमें से कुछ बाद में कांग्रेस से अलग हो गए और विपक्षी दल बने ।
●किसी खास पद्धति , कार्यक्रम या नीति को लेकर मौजूद मतभेदों को कांग्रेस पार्टी सुलझा भले न पाए लेकिन उन्हें अपने आप में मिलाए रखती थी और एक आम सहमति कायम कर ले जाती थी । 
● कांग्रेस के गठबंधनी स्वभाव ने उसे एक असाधारण ताकत दी । पहली बात तो यही कि जो भी आए , गठबंधन उसे अपने में शामिल कर लेता है । इस कारण गठबंधन को अतिवादी रुख अपनाने से बचना होता है और हर मसले पर संतुलन को साधकर चलना पड़ता है । 
 ● इस रणनीति की वजह से विपक्ष कठिनाई में पड़ा । विपक्ष कोई बात कहना चाहे तो कांग्रेस की विचारधारा और कार्यक्रम में उसे तुरंत जगह मिल जाती थी । दूसरे , अगर किसी पार्टी का स्वभाव गठबंधनी हो तो अंदरूनी मतभेदों को लेकर उसमें सहनशीलता भी ज्यादा होती है । 
 ● कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान इन दोनों ही बातों पर अमल किया था और आज़ादी मिलने के बाद भी इस पर अमल जारी रखा । इसी कारण , अगर कोई समूह पार्टी के रुख से अथवा सत्ता में प्राप्त अपने हिस्से से नाखुश हो तब भी वह पार्टी में ही बना रहता था ।
 ● पार्टी के अंदर मौजूद विभिन्न समूह गुट कहे जाते हैं । अपने गठबंधनी स्वभाव के कारण कांग्रेस विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी और इस स्वभाव से विभिन्न गुटों को बढ़ावा भी मिला । कांग्रेस के विभिन्न गुटों में से कुछ विचारधारात्मक सरोकारों की वजह से बने थे । लेकिन अक्सर गुटों के बनने के पीछे व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा तथा प्रतिस्पर्धा भावना भी काम करती थी ।
 ● कांग्रेस की अधिकतर प्रांतीय इकाइयाँ विभिन्न गुटों को मिलाकर बनी थीं । ये गुट अलग - अलग विचारधारात्मक रुख अपनाते थे और कांग्रेस एक भारी - भरकम मध्यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी । 
 ● इस तरह बाकी पार्टियाँ हाशिए पर रहकर ही नीतियों और फैसलों को अप्रत्यक्ष रीति से प्रभावित कर पाती थीं । ये पार्टियाँ सत्ता के वास्तविक इस्तेमाल से कोसों दूर थीं । शासक दल का कोई विकल्प नहीं था।
 ● इसके बावजूद विपक्षी पार्टियाँ लगातार कांग्रेस की आलोचना करती थी , उस पर दबाव डालती थीं और इस क्रम में उसे प्रभावित करती थीं । गुटों की मौजूदगी की यह प्रणाली शासक दल के भीतर संतुलन साधने के एक औजार की तरह काम करती थी । • इस तरह राजनीतिक होड़ कांग्रेस के भीतर ही चलती थी । इस अर्थ में देखें तो चुनावी प्रतिस्पर्धा के पहले दशक में कांग्रेस ने शासक दल की भूमिका निभाई और विपक्ष की भी । इसी कारण भारतीय राजनीति के इस कालखंड को रजनी कोठरी ने ' कांग्रेस प्रणाली (The Congress System) ' तथा मॉरिन-जोंस नें एक दलीय प्रभुत्व (One-Party Dominant System) का दौर कहा है ।

प्रमुख विपक्षी दल (Major Opposition Parties) 

 ● बहुदलीय लोकतंत्र वाले अन्य अनेक देशों की तुलना में उस वक्त भी भारत में बहुविध और जीवंत विपक्षी पार्टियाँ थीं । इनमें से कई पार्टियाँ 1952 के आम चुनावों से कहीं पहले बन चुकी थीं । इनमें से कुछ ने ' साठ ' और ' सत्तर ' के दशक में देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । 
 आज की लगभग सभी गैर - कांग्रेसी पार्टियों की जड़ें 1950 के दशक की किसी न किसी विपक्षी पार्टी में खोजी जा सकती हैं । 
 ● 1950 के दशक में इन सभी विपक्षी दलों को लोकसभा अथवा विधानसभा में कहने भर को प्रतिनिधित्व मिल पाया । फिर भी , इन दलों की मौजूदगी ने हमारी शासन - व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभाई । 

 स्वतंत्र पार्टी ( Swatantra Party ) 

• कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जमीन की हदबंदी , खाद्यान्न के व्यापार , सरकारी अधिग्रहण और सहकारी खेती का प्रस्ताव पास हुआ था । इसी के बाद 1959 के अगस्त में स्वतंत्र पार्टी अस्तित्व में आई । इस पार्टी का नेतृत्व सी . राजगोपालाचारी , के.एम. मुंशी , एन.जी. रंगा और मीनू मसानी जैसे पुराने कांग्रेस नेता कर रहे थे ।
 • स्वतंत्र पार्टी चाहती थी कि सरकार अर्थव्यवस्था में कम से कमतर हस्तक्षेप करे । इसका मानना था कि समृद्धि सिर्फ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जरिये आ सकती है । 
 • यह पार्टी कमजोर वर्गों के हित को ध्यान में रखकर किये जा रहे कराधान के भी खिलाफ थी । इस दल ने निजी क्षेत्र को खुली छूट देने की तरफदारी की ।
 • यह दल गुटनिरपेक्षता की नीति और सोवियत संघ से दोस्ताना रिश्ते कायम रखने को भी गलत मानती थी । इसने संयुक्त राज्य अमेरिका से नजदीकी संबंध बनाने की वकालत की । अनेक क्षेत्रीय पार्टियों और हितों के साथ मेल करने के कारण स्वतंत्र पार्टी देश के विभिन्न हिस्सों में ताकतवर हुई । उद्योगपति और व्यवसायी वर्ग के लोग राष्ट्रीयकरण और लाइसेंस - नीति के खिलाफ थे । इन लोगों ने भी स्वतंत्र पार्टी का समर्थन किया । इस पार्टी का सामाजिक आधार बड़ा संकुचित था और इसके पास पार्टी सदस्य के रूप में समर्पित कॉडर की कमी थी । इस वजह से यह पार्टी अपना मजबूत सांगठनिक नेटवर्क खड़ा नहीं कर पाई ।

 कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया

• 1920 के दशक के शुरुआती सालों में भारत के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी - समूह ( कम्युनिस्ट ग्रुप ) उभरे । ये रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित थे और देश की समस्याओं के समाधान के लिये साम्यवाद की राह अपनाने के पक्षधर थे । 
 • 1935 से साम्यवादियों ने मुख्यतया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दायरे में रहकर काम किया । कांग्रेस से साम्यवादी 1941 के दिसंबर में अलग हुए । 
 • दूसरी गैर - कांग्रेसी पार्टियों के विपरीत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पास आज़ादी के समय एक सुचारू पार्टी मशीनरी और समर्पित काडर मौजूद थे । 
 • आज़ादी के तुरंत बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विचार था कि 1947 में सत्ता का जो हस्तांतरण हुआ वह सच्ची आजादी नहीं थी । इस विचार के साथ पार्टी ने तेलंगाना में हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया । साम्यवादी अपनी बात के पक्ष में जनता का समर्थन हासिल नहीं कर सके और इन्हें सशस्त्र बलों द्वारा दबा दिया गया । 
 • 1951 में साम्यवादी पार्टी ने हिंसक क्रांति का रास्ता छोड़ दिया और आने वाले आम चुनावों में भाग लेने का फैसला किया । पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 सीटें जीतीं और वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनकर उभरी । इस दल को ज्यादातर समर्थन आंध्र प्रदेश , पश्चिम बंगाल , बिहार और केरल में मिला । 
 • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं में ए.के. गोपालन , एस . ए . डांगे , ई.एम.एस. नंबूदरीपाद , पी.सी. जोशी , अजय घोष और पी . सुंदरैया के नाम लिये जाते हैं ।
 • चीन और सोवियत संघ के बीच विचारधारात्मक अंतर आने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 1964 में एक बड़ी टूट का शिकार हुई । सोवियत संघ की विचारधारा को ठीक मानने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में रहे जबकि इसके विरोध में राय रखने वालों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) नाम से अलग दल बनाया । ये दोनों दल आज तक कायम हैं । 

 भारतीय जनसंघ 

● भारतीय जनसंघ का गठन 1951 में हुआ था । श्यामा प्रसाद मुखमी इसके संस्थापक अध्यक्ष थे । इस दल की जड़ें आजादी के पहले के समय से सक्रिय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( RSS ) और हिंदू महासभा में खोजी जा सकती हैं ।
 ● जनसंघ ने ' एक देश , एक संस्कृति और एक राष्ट्र ' के विचार पर जोर दिया । इसका मानना था कि देश भारतीय संस्कृति और परंपरा के आधार पर आधुनिक , प्रगतिशील और ताकतवर बन सकता है ।
 • जनसंघ ने भारत और पाकिस्तान को एक करके ' अखंड भारत ' बनाने की बात कही । अंग्रेजी को हटाकर हिंदी को राजभाषा बनाने के आंदोलन में यह पार्टी सबसे आगे थी । 
 • चीन ने 1964 में अपना परमाणु परीक्षण किया था । इसके बाद से जनसंघ ने लगातार इस बात की पैरोकारी की कि भारत भी अपने परमाणु हथियार तैयार करे । 
● 1950 के दशक में जनसंघ चुनावी राजनीति के हाशिए पर रहा । इस पार्टी को 1952 के चुनाव में लोकसभा की तीन सीटों पर सफलता मिली और 1957 के आम चुनावों में इसने लोकसभा की 4 सीटें जीतीं । 

 निष्कर्ष ( Conclusion ) • स्वतंत्रता की उद्घोषणा के बाद अंतरिम सरकार ने देश का शासन सँभाला था । जवाहरलाल नेहरू इसके प्रधानमंत्री थे व मंत्रिमंडल में डॉ . अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे विपक्षी नेता शामिल थे । 
 • इस तरह अपने देश में लोकतांत्रिक राजनीति का पहला दौर एकदम अनूठा था । राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र समावेशी था । इसकी अगुआई कांग्रेस ने की थी । राष्ट्रीय आंदोलन के इस चरित्र के कारण कांग्रेस की तरफ विभिन्न समूह , वर्ग और हितों के लोग आकर्षित हुए ।
 • आजादी की लड़ाई में कांग्रेस ने मुख्य भूमिका निभाई थी और इस कारण कांग्रेस को दूसरी पार्टियों की अपेक्षा बढ़त प्राप्त थी । सत्ता पाने की लालसा रखने वाले हर व्यक्ति और हर हित - समूह अपने अंदर समाहित करने की कांग्रेस की क्षमता जैसे जैसे घटी, वैसे वैसे दूसरे राजनीतिक दलों को महत्त्व मिलना शुरू हुआ । इस तरह कांग्रेस का प्रभुत्व देश की राजनीति के सिर्फ एक दौर में ही रहा ।

 महत्वपूर्ण प्रश्न 

1- भारत में प्रथम आम चुनावों को करवाने के लिए कौन से विभिन्न तरीके अपनाए गए? किस हद तक इन चुनावों को सफलता प्राप्त हुई?

 2- स्वाधीनता से पूर्व के दिनों में कांग्रेस को सामाजिक व विचारधारात्मक गठबंधन के रूप में क्यों माना जाता था? समझाइये। 

 3- भारत की एक दलीय प्रभुता मैक्सिको की एक दलीय प्रणाली से किस प्रकार भिन्न थी? आपकी राय में दोनों राजनीतिक प्रणालियों में कौन-सी बेहतर और क्यों है?
 अथवा भारत की एक दलीय प्रभुता दुनिया के एक दलीय प्रभुता के दूसरे उदाहरणों से किस प्रकार भिन्न है।?

 4-भारतीय जनसंघ की विचारधारा की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए। यह कांग्रेस की विचारधारा से किस प्रकार अलग थी? 

 5- भारत में पहले तीन आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का मूल्यांकन कीजिए व इस प्रभुत्व के किन्हीं चार कारणों को स्पष्ट कीजिए।

 6- 1959 में स्थापित स्वतंत्र पार्टी की विचारधारा के किन्हीं दो तर्को की व्याख्या कीजिए। 

 7- 1962 के भारत-चीन युद्ध ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कैसे प्रभावित किया?

 8- किस प्रकार मतदान की प्रक्रिया 1952 के आम चुनावों से लेकर 2004 तक के आम चुनावों तक बदल दी गयी?

 9- "भारत मे सार्वभौमिक मताधिकार का प्रयोग बहुत साहसपूर्ण व जोखिम का सौदा था।" इस कथन को समझाइये। 

 10- सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के उद्देश्यों व लक्ष्यों को बताइये।यह पार्टी स्वयं को कांग्रेस का एक प्रभावशाली विकल्प क्यों नहीं साबित कर सकी?

 11- भारत के प्रथम आम चुनाव 1952 में किस प्रकार पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए? 

 12-भारत में विपक्षी दलों का उद्भव किस प्रकार हुआ? ये क्यों महत्वपूर्ण थे? स्वतंत्रता के बाद प्रथम आम चुनाव के समय निर्वाचन आयोग के समक्ष किस तरह की कठिनाईयां थी? स्पष्ट कीजिए।
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