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सामाजिक न्याय और न्याय के सिद्धांत
भूमिका
सामाजिक न्याय का अर्थ समाज में सभी व्यक्तियों को समान अधिकार, अवसर और संसाधनों तक पहुँच सुनिश्चित करना है। यह एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करने का प्रयास करता है जिसमें जाति, धर्म, लिंग, वर्ग या किसी अन्य भेदभाव के आधार पर किसी के साथ अन्याय न हो। सामाजिक न्याय केवल आर्थिक समानता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक न्याय भी शामिल हैं।
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा सामाजिक न्याय के आदर्शों पर आधारित होती है, जहाँ सरकार नागरिकों के कल्याण के लिए नीतियाँ बनाती है। समाज में न्याय की अवधारणा को अलग-अलग कालखंडों और सभ्यताओं में अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया गया है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक विभिन्न दार्शनिकों और विचारकों ने न्याय की व्याख्या अपने दृष्टिकोण से की है।
न्याय की विभिन्न व्याख्याएँ
न्याय की अवधारणा समय और स्थान के अनुसार बदलती रही है। विभिन्न सभ्यताओं में इसे अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखा गया है।
1. प्राचीन भारतीय समाज में न्याय
प्राचीन भारत में न्याय को धर्म से जोड़ा गया था। धर्म का अर्थ केवल धार्मिक रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें नैतिकता, कर्तव्य और सामाजिक संतुलन भी शामिल था। न्याय को बनाए रखना राजा का प्रमुख कर्तव्य माना जाता था। प्राचीन ग्रंथों जैसे मनुस्मृति, महाभारत और अर्थशास्त्र में न्याय की व्याख्या की गई है।
मनुस्मृति में न्याय को समाज में सद्गुणों और नीति-नियमों के अनुसार कार्य करने से जोड़ा गया है।
महाभारत में न्याय को धर्म के पालन के रूप में देखा गया, जहाँ न्याय और नीति को समान महत्व दिया गया।
चाणक्य के अर्थशास्त्र में न्याय को सुशासन और दंड व्यवस्था से जोड़ा गया। इसमें राजा को समाज में न्याय की रक्षा करने और अन्याय को समाप्त करने का उत्तरदायित्व दिया गया।
2. चीन में न्याय (कन्फ्यूशियस का दृष्टिकोण)
चीन में कन्फ्यूशियस ने न्याय को नैतिकता और शासन प्रणाली से जोड़ा। उन्होंने कहा कि शासकों को न्यायप्रिय होना चाहिए और समाज में संतुलन बनाए रखना चाहिए।
कन्फ्यूशियस के अनुसार, शासक का कर्तव्य है कि वह बुरे कार्य करने वालों को दंडित करे और अच्छे कार्य करने वालों को पुरस्कृत करे।
उन्होंने नैतिक शासन (Moral Governance) पर बल दिया, जिसमें कानूनों की तुलना में नैतिकता और आदर्शों को अधिक महत्व दिया गया।
उन्होंने यह भी कहा कि न्याय तभी संभव है जब शासक स्वयं न्यायपूर्ण और नैतिक हो।
3. प्राचीन ग्रीस में न्याय (प्लेटो का दृष्टिकोण)
प्राचीन ग्रीस के दार्शनिक प्लेटो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द रिपब्लिक' में न्याय की विस्तृत व्याख्या की। उन्होंने न्याय को समाज में संतुलन और समन्वय बनाए रखने से जोड़ा।
प्लेटो के अनुसार, न्याय का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करे और समाज में अपनी भूमिका को समझे।
उन्होंने समाज को तीन वर्गों में बाँटा:
1. शासक (Rulers) - जिनका कार्य समाज को न्यायसंगत रूप से चलाना है।
2. योध्दा (Warriors) - जो समाज की रक्षा करते हैं।
3. श्रमिक (Producers) - जो उत्पादन और आर्थिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं।
प्लेटो का मानना था कि जब प्रत्येक वर्ग अपने निर्धारित कार्य को पूरी निष्ठा से करेगा, तभी समाज में न्याय की स्थापना होगी।
4. इमैनुएल कांट का न्याय सिद्धांत
जर्मन दार्शनिक इमैनुएल कांट ने न्याय को मानव गरिमा और समानता से जोड़ा। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक विशेष गरिमा होती है, और उसे उचित सम्मान मिलना चाहिए।
कांट के अनुसार, न्याय की आवश्यकता है कि हम सभी व्यक्तियों को समान और उचित महत्व दें।
उन्होंने नैतिकता और न्याय को आपस में जोड़ा और कहा कि सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि न्याय की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा करे।
5. आधुनिक न्याय का सिद्धांत (जॉन रॉल्स)
आधुनिक समय में जॉन रॉल्स ने न्याय का सिद्धांत (Theory of Justice) प्रस्तुत किया, जो आज भी सामाजिक न्याय के लिए एक महत्वपूर्ण आधार माना जाता है।
उन्होंने 'न्याय को निष्पक्षता (Justice as Fairness)' कहा।
उनका मुख्य विचार Difference Principle था, जिसके अनुसार संसाधनों का वितरण इस तरह होना चाहिए कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों को अधिक लाभ मिले।
उन्होंने मूलभूत स्वतंत्रताओं (Basic Liberties) की समानता पर भी जोर दिया, जिसमें बोलने की स्वतंत्रता, मताधिकार, शिक्षा और रोजगार के समान अवसर शामिल हैं।
सामाजिक न्याय के घटक
सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है:
1. आर्थिक न्याय – समाज के सभी वर्गों को आर्थिक संसाधनों और अवसरों तक समान पहुंच मिलनी चाहिए।
2. राजनीतिक न्याय – प्रत्येक नागरिक को समान राजनीतिक अधिकार जैसे मतदान का अधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार मिलना चाहिए।
3. सामाजिक न्याय – जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए।
4. विधिक न्याय – कानून सभी के लिए समान होना चाहिए और प्रत्येक नागरिक को त्वरित और निष्पक्ष न्याय मिलना चाहिए।
भारत में सामाजिक न्याय और संविधान
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय की अवधारणा को विशेष महत्व दिया गया है।
संविधान के प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की बात कही गई है।
अनुच्छेद 14-18 समानता के अधिकार की गारंटी देते हैं, जिससे भेदभाव को समाप्त किया जा सके।
अनुच्छेद 38 और 39 में सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने की बात कही गई है।
अनुच्छेद 46 अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के कल्याण की बात करता है।
सामाजिक न्याय की चुनौतियाँ
हालांकि, आज भी सामाजिक न्याय की प्राप्ति में कई चुनौतियाँ हैं:
1. आर्थिक असमानता – समाज में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई।
2. जातिवाद और भेदभाव – सामाजिक असमानता का एक बड़ा कारण।
3. शिक्षा और स्वास्थ्य की असमानता – गरीबों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पातीं।
4. न्यायिक प्रणाली की जटिलता – गरीबों और कमजोर वर्गों को न्याय पाने में कठिनाई होती है।
निष्कर्ष
सामाजिक न्याय केवल एक कानूनी अवधारणा नहीं, बल्कि एक नैतिक और मानवीय सिद्धांत भी है। यह समाज में समानता, स्वतंत्रता और गरिमा को बनाए रखने का आधार है। न्याय के विभिन्न सिद्धांत समय के साथ विकसित हुए हैं और आज भी इनका महत्व बना हुआ है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सामाजिक न्याय की अवधारणा और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जहाँ विभिन्न वर्गों को समान अधिकार और अवसर देना आवश्यक है।
सामाजिक न्याय को वास्तविकता में बदलने के लिए सरकार, समाज और प्रत्येक नागरिक को मिलकर कार्य करना होगा ताकि एक समान, न्यायसंगत और समावेशी समाज की स्थापना की जा सके।
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